Thursday, January 28, 2010

क्या खबर थी कि वो इक रोज पराया होगा

जब हुनर उसको खुदा ने ये सिखाया होगा
एक कतरे में समन्दर जा समाया होगा

दिल  मेरा उसने कभी जो यूं दुखाया होगा
उसको भी यार नहीं  चैन तो आया होगा

उसको मालूम था जब इसका उजागर होना
प्यार  क्यों उसने जमाने से छुपाया होगा

आज मौजूद नहीं था वो हसीं तो यारो
रंग महफिल में भला किसने जमाया होगा

बन के धड़कन जो धड़कता था रहा दिल में“श्याम‘
क्या खबर थी कि वो इक रोज पराया होगा


फ़ाइलातुन,फ़ इ लातुन,फ़ इ लातुन,फ़ेलुन


यहां कोहरे पर  दो नवगीत देखें
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Sunday, January 24, 2010

एनकाउंटर—-ए लव स्टोरी

इस कहानी पर पहला कमेन्ट----कहानी कमेन्ट के बाद शुरू है

डॉ टी एस दराल said...

डॉक्टर साहब , क्या कहें। समझ नहीं पा रहा हूँ कहाँ से शुरू करूँ।
आरम्भ में उत्सुकता --धीरे धीरे सस्पेंस ---फिर तो कहर ढाने वाला सस्पेंस ---पूरी कहानी एक सांस में पढ़ गया।
सांस भी इसलिए नहीं ली की कहीं प्रवाह टूट जाये।
इत्तेफाक देखिये --अज सुबह मैं भी अपने प्री-मेडिकल के समय की कुछ ऐसी ही यादों में डूब सा गया था।
फर्क सिर्फ इतना था की कोई कहानी थी ही नहीं, बस नायिका थी ।
वक्त सचमुच बड़ा बेरहम होता है।
इसलिए ख्यालों में ही जो तस्वीर रहती है , वही रहे तो कितना सुख मिलता है।

बहुत अच्छा लगा , यह कहानी पढ़कर। मार्मिक, दिलचस्प और धारा-प्रवाह।
शानदार।




(मित्रो अब तक आप मेरी गज़लों को पसन्द कर मेरा हौसला बढाते रहे हैं ,ँ सेआज मैं बतला दूं कि मैं मूलत: कथाकार हू और मा शारदे की अनुकम्पा से अब तक १२५-१३० कहानी लिख पाया हूं। आप सरीखे मित्रों की दुआओं १०-१२ कहानियां पुरस्कृत भी हुईं। वहीं एक उपन्यास को M.A final ke sylabus जगह पाने के लायक समझा गया हिन्द पाकेट बुक्स से प्रकाशित है व कुरुक्षेत्र विश्व .वि .के कोर्स में शामिल है।आज मैं आपके सामने अपनी एक कहानी लेकर हाजिर हूं । जानता हूं कि नेट पाठकों के पास वक्त कम होता है फ़िर भी मेरा विश्वास है यह कहानी आपको आह्लाद प्रदान करेगी और आपका वक्त जाया न जाएगा। कहानी हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा वर्ष १९९८ में सर्वश्रेष्ठ पुस्तक से पुरस्कृत कथा संग्रह -अकथ से जिसे बाद में श्री दिव्य रजत अलंकरण भोपाल से भी नवाजा गया।)

एनकाउंटर-ए लव स्टोरी
श्याम सखा

बात कुछ यूँ शुरू हुई, कि तकरीबन दो महीने से, हमारे टेलीफोन की घण्टी बजती और जैसे ही,

हम टेलीफोन उठाते, हैलो कहते मगर, फिर दूसरी तरफ से कोई बोलता नहीं। परन्तु हमें ये अहसास होता कि टेलीफोन कटा नहीं, बल्कि कोई हमारी आवाज सुन रहा है और बोलता नहीं। एक दिन तो कुछ नहीं हुआ, हमने इसे टेलीफोन लाइन या एक्सचैंज की कोई गड़बड़ मान लिया। टेलीफोन या तो लगभग ग्यारह बजे रात या सुबह पांच बजे आता था। फिर हमें लगने लगा कि कोई जानबूझकर ऐसा कर रहा है। यह भी महसूस होता कि दूसरी तरफ जो भी कोई है कुछ कहना चाहता है परन्तु झिझक के कारण, कुछ कह नहीं पाता। एक उत्सुकता सी रहती थी कि कौन होगा ! जाने क्यों ऐसा लगता है कि कोई अपना है जो चाहकर भी बात नहीं कर पा रहा ! उत्सुकता के साथ यह विचार भी आता, कि आखिर उसे ऐसी क्या मजबूरी है !
अब अक्सर ऐसा होने लगा, कि रात को टेलीफोन की तरफ, मैं सोने लगा। एक दिन घण्टी बजी, मैं उन्नीदा-सा बोला, ‘‘हैलो’’ उधर से आवाज आई- ‘‘हैलो कौन’’?
‘‘आप कौन’’ और फोन कट गया।
मैंने सोचा, गलत नम्बर होगा।
दो दिन बाद, फिर ऐसा ही हुआ। उधर से आवाज आई- ‘‘हैलो’’
मैंने कहा-‘‘हैलो कौन’’?
‘‘मैं‘‘
‘‘आप कौन?‘‘
‘‘मैं डाक्टर नवल‘‘
फोन कट गया।
अब सिलसिला चल निकला कि फोन की घण्टी बजती, अगर पत्नी फोन उठाती तो उधर से कोई आवाज नहीं आती और अगर मैं उठाता तो, दो-एक जुमलों के बाद फोन कट जाता। हालांकि रात, वक्त-बेवक्त, फोन आता था। पर जाने क्यों झुंझलाहट या चिड़ कभी नहीं हुई ! पत्नी ने एक दो-बार पूछा कौन था? मैं यह कहकर टाल गया, कि गलत नम्बर था। यह सोचकर कि औरतें, बात में से बात निकालती हैं और फिर पता नहीं, बात किधर जा निकले। अब भी फोन पर खुलकर बात नहीं हो पाती थी। हाँ, एक आध जुमला अवश्य, इधर-उधर हो जाता था। मसलन एक सुबह फोन बजा। मैं उठा, बोला- हैलो !
‘हैलो, डाक्टर नवल, गुड़ मार्निंग!‘‘
‘‘जी, बेनाम हसीना।‘‘
‘‘आपने हसीना कैसे कहा?‘‘
‘‘जैसे आपने डॉ० नवल।‘‘
‘‘पर आप तो डॉ० नवल हैं।‘‘
‘‘और आप बेनाम भी हैं, हसीन भी।‘‘
फोन कट गया।
मैं दिमाग लगाता रहा, कि आखिर कौन हो सकती है मोहतरमा, पर न तो जान-पहचान में से यह स्वर मालूम हुआ, न ही श्रीमती जी की कोई सहेली लगी। फिर आखिर कौन थी?
एक बात अवश्य थी, कि फोन लगातार आ रहे थे तथा तकरीबन उसी संख्या में, आ रहे थे। हाँ, तरतीब कोई नहीं थी। किसी दिन, दिन में दो बार तो कभी-कभी दो दिन भी नहीं। हाँ, दो-तीन बार से अधिक ऐसा नहींं हुआ। पत्नी फोन उठाती तो, कोई आवाज नहीं आती और मेरे फोन उठाने पर, उसी तरह सरगोशी के लहजे में, थोड़ी बहुत बात होती, फिर फोन कट जाता। एक हिचक-सी दूसरी ओर से बात करने वाले के मन में मुझे महसूस होती रही। एक बार रात डेढ़ बजे फोन आया-मैंने कहा-
हैलो !
~……….उधर से कोई आवाज नहीं।
हैलो, मैं डॉ० नवल।
………
हैलो, मैं फोन रख रहा हूँ।
ना, ऐसा ना करें।
तुम कौन हो ?
……..
इस वक्त, फोन क्यों करती हो ?
……….‘‘
पत्नी के फोन उठाने पर, जवाब क्यों नहीं देती ?
……….‘‘
‘‘अच्छा ! मैं फोन रख रहा हूँ
‘‘……….‘‘
फोन कट जाता है। मेरी नींद, कोसों दूर चली गई है। रह-रहकर सोचता हूँ। कौन हो सकती है ! परन्तु कोई भी सूत्रा नहीं पकड़ा जाता। आवाज भी, पहचानी नहीं जाती।
पर जाने क्यों, बार-बार महसूस होता, कि है कोई जान पहचान वालों में से। और जैसे, बहुत कुछ कहना चाहती है, पर कह नहींं पाती। मेरी शादी घरवालों ने तय की थी तथा पहले मेरा किसी से, प्यार-व्यार का चक्कर भी नहीं था। न ही, इतने सालों की नौकरी, करते हुए किसी से, घनिष्ठता हुई थी। फिर कौन हो सकता है? मैं थककर सो गया। दस, पन्द्रह दिन तक कोई फोन नहीं आया। परन्तु मैं, जागते-सोते, फोन का, इन्तजार करने लगा। मैं कोशिश करता कि फोन, मैं ही उठा। कहीं ऐसा न हो, कि फोन पर वही हो। फोन न आने पर, मैं बेचैन रहने लगा। ऐसा लगा कि, मेरा कोई अभिन्न मित्रा, मुझसे छूट गया हो। आखिर एक दिन फोन बजा, ठीक रात के दो बजे। पत्नी ने फोन उठाया-‘‘हैलो, हैलो‘‘ और पटक दिया। बोली आप इसको ठीक करवाइए, कहीं क्रास फाल्ट है और घण्टी यहाँ बजती रहती है। मैंने कुछ नहीं कहा। परन्तु इन्तजार करने लगा। लगभग बीस मिनट बाद, घण्टी बजी। मैंने जल्दी से रिसीवर उठाया। पत्नी सो चुकी थी।
‘‘हां कहो!‘‘ मैंने कहा।
‘‘मैं बोल रहा हूँ।‘‘
तुम कल रात दिल्ली आ सकते हो ?
‘‘क्यों?‘‘
‘‘तुम कल दिल्ली आ सकते हो?‘‘
‘‘रात को रुकना भी पड़ेगा, पता नोट कर लें।‘‘
‘‘लोधी होटल, लाबी में, रिसेप्शन के पास।‘‘
‘‘तुम हो कौन?‘‘
‘‘मैं तुम्हारा इन्तजार करूँगी।‘‘
‘‘मगर तुम हो कौन ‘‘
‘‘देख लेना‘‘
और फोन कट गया।
मेरी नींद उड़ गई। रह-रहकर जाने कैसे-कैसे विचार आ रहे थे ? कौन होगी वह? मुझे ही टेलीफोन क्यों करती है? कहीं कोई षड~यन्त्र तो नहीं। मैं अब तक, शहर का नामी चिकित्सक हो चुका था। हालांकि मेरा, अब तक किसी से झगड़ा या बैर नहीं हुआ था। परन्तु आजकल के माहौल, को देखते हुए, जाने कैसे-कैसे उतार-चढ़ाव मन में आने लगे ! जितना, मैं इस गुत्थी को सुलझाने का प्रयास करता, उतनी ही और उलझ जाती। कालेज के दिनों मैडिकल कालेज हस्पताल में, नौकरी के दौरान मेरा, कितनी ही लड़कियों व नर्सों से सम्पर्क हुआ, लेकिन घनिष्ठता किसी से नहीं हुई थी। मैंने मन ही मन सोचा कि मैं नहीं जाऊंगा। अगर उसका फोन, फिर आया तो जवाब भी नहीं दूँगा। इस उम्र में मेरा यह खिलंदरापन ठीक नहीं है। हो सकता है, कोई मित्र बेवकूफ बनाना चाहता हो और किसी से, फोन करवा रहा हो। खैर ! मन में पक्का निश्चय ‘न जाने का‘ करने के बाद कुछ धीरज-सा हुआ। मैं सो गया। सोचा, आज चौबीस तारीख है और फर्स्ट अप्रैल के सात दिन बाकी हैं।
चार-पांच दिन, कोई फोन नहीं आया। मैंने भी, कुछ अधिक ध्यान नहीं दिया। छठे दिन, रात लगभग दो बजे फिर फोन आया-‘‘हैलो।
‘‘………………….‘‘ मैं चुप रहा।
‘‘हैलो, डॉ० साहब आप क्यों नहीं आए?Þ
‘‘…………………….Þ
‘‘बोलिए न मुझे पता है, फोन पर आप ही हैं’
मैंने फोन रख दिया।
घण्टी फिर बजी।
‘‘हैलो, डॉ० साहब! कल आप जरूर आइएगा, आप किसी अनर्थ की ना सोचं।”
आवाज में अनुनय था। ‘‘मेरा आपसे मिलना जरूरी है। मेरा एक वायदा है आपसे, बरसों पुराना। देखिए ! मैं बहुत दूर, दूसरे देश से आई हूं। हैलो!”
मुझे मजाक सूझा। ‘‘कहीं इन्द्रलोक से तो नहीं आई हैं आप‘‘ उसने सुना-अनसुना कर के कहा ‘‘आप जरूर आएँ। मेरा आप पर, वश तो नहीं है। पर विनती जरूर है कि आप आएँ।‘‘
फोन कट गया।
मैं, पहले से भी उद्विग्न हो गया। रात-भर, कई तरह के सोच विचार किए और न जाने की सोच कर सो गया।
सुबह उठते ही मस्तिष्क ने फिर उसी तरह सोचना, शुरू कर दिया। मैंने पत्नी से कहा कि अटैची लगा दे। मुझे एक-दो दिन के लिए, दिल्ली जाना पड़ेगा। पत्नी को थोड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि मैं, अक्सर बाहर जाने का प्रोग्राम, इतनी जल्दी नहीं बनाता। बल्कि कई दिन पहले ही मेरे जाने की चर्चा घर में गूँजने लगती है। चाहे आफिशियल काम हो या संस्था के काम से अथवा निजी घूमने वगैरा के चक्कर में। लेकिन उसने कुछ नहीं कहा। चुपचाप अटैची में कपड़े सहेजने लगी। मेरे मन में चोर था, अत: स्पष्टीकरण देने लगा, कि रात राजू का टेलीफोन आया था। उसे कुछ काम है, शायद इसीलिए बुलाया है। राजू मेरा लंगोटिया यार था। साल में दो-चार बार आकर मेरे यहाँ रुकता था। मैं भी साल में एक बार उसके पास जरूर जाता था।
सारा दिन, सफर पता नहीं, कितना लम्बा लगता रहा। गाड़ी होटल के पोर्च में रुकी। दरबान ने, अभिवादन कर बड़े अन्दाज से, दरवाजा खोला, पर मुझपर जैसे किसी आसेब का साया था। बिना जवाब दिए, अन्दर दाखिल हो गया। इन फाइव स्टार होटलों के बेयरे, दरबान, बड़े खुर्राट किस्म के जीव होते हैं। मानो मनुष्य की जून में घडियाल। ऐसी छोटी-मोटी तोहीन को जरा से कन्धे उचकाकर झाड़ देना, शायद उनकी ट्रेंनिग में शामिल होता है। खैर ! मैं लाबी में पहुँचा और बीचों-बीच बनाए गए खूबसूरत फव्वारे, की बांईं तरफ के सोफे पर बैठ गया। कसमसाकर दो-चार मिनट पहलू बदले होंगे, कि वेटर एक बढ़िया तश्तरी में, एक लिफाफा लेकर, मौजूद हुआ। लिफाफे के साथ ही, तश्तरी में उसे खोलने के लिए, खूबसूरत चाकू रखा था। इन होटलों में चोचलों की भरमार रहती है। मैं अधिकतर लोगों की तरह लिफाफा फाड़कर पत्र निकालने का आदी हूँ। परन्तु होटल के माहौल तथा उस बावर्दी बेयरे की मौजूदगी में, ऐसा कर सका और चाकू से लिफाफा खोलने लगा। मैं खुद को सिमटा सा महसूस कर रहा था, क्योंकि इस तरह लिफाफा खोलना मेरे लिए काफी कोफ्त का काम था। खैर पत्र निकाल कर, लिफाफा चाकू तथा टिप बेयरे की तश्तरी के हवाले की। बेयरा दो कदम पीछे हटकर खड़ा हो गया।
मैं पत्र पढ़ने लगा। लिखा था कृपया बेयरे के साथ चले आएँ ‘बेनाम’। मैंने बेयरे पर नजर डाली, वह झुककर व्यावसायिक मुस्कराहट चेहरे पर ले आया। मैं उठ खड़ा हुआ। आगे चलकर लिफ्ट में दाखिल होकर उसने बटन दबाया और लिफ्ट ऊपर सरकने लगी। लिफ्ट तीन ओर से पारदर्शी शीशे की बनी हुई थी। मैं इसमें पर जाते हुए ऐसा महसूस कर रहा था कि जैसे बीच बाजार में, मेरी नुमाइश लगी हो।
ऊपर पहुंचकर, हम कुछ देर गद्देदार गलीचों से ढके, गलियारे से होकर, एक कमरे के सामने पहुँचे। बेयरे ने घण्टी बजाई, फिर कुछ देर रुक कर दरवाजा खोल दिया। मैं अन्दर आ गया। बैरा, बिना कुछ बोले दरवाजा बन्द करके, चला गया। कुछ देर तो मैं, अहमक सा बना खड़ा रहा, फिर आगे बढ़कर कमरे का मुआयना करने लगा। कमरा फाइव स्टार होटल के अच्छे कमरों में से था। एक तरफ बैठने की जगह थी, जहाँ तीन भव्य कुर्सियाँ पड़ी थीं तथा बीच में काफी टेबुल। दूसरी तरफ झीना सा पर्दा था। उसके उस पार एक डबल बैड था, जिसकी समु्द्र फेन सी, सफेद चादर पर पड़ी् सिलवटें बतला रहीं थीं कि इस, बेड से उठकर अभी कोई गया है। मैं एक कुर्सी पर बैठ गया। कWाफी टेबुल पर एक फूलदान था जिसमें बड़ी खूबसूरती से हल्के पीले व गहरे नीले रंगे के फूल थे। मैं तो इन फूलों का नाम भी नहींं जानता था। फूलदान के पास एक खूबसूरत लिफाफा रखा था, जिस पर मेरा नाम लिखा था। मैंने लिफाफा उठा लिया और खोलने लगा। एक भीनी सी खुशबू मेरे जहन में उतर गई। पत्रा में लिखा था कुछ पल और प्रतीक्षा करें, मैं शावर में हूँ। तब तक आप पाइप पीजिए। पाइप दराज में है। मैं कभी पाइप पीता था, पर अब मुझे पाइप छोड़े हुए बरसों बीत गए थे। फिर भी मैंने दराज खोला उसमें एक चायनीज पाइप, प्रिंस हेनरी का तम्बाकू तथा लाइटर रखे थे।
मैंने पुराने अभ्यास वश, पाइप को भरा और लाइटर से सुलगाकर एक लम्बा कश लिया। अब तक मैं संयत हो चुका था तथा हर किसी होनी अनहोनी के लिए तैयार था। पर मैं हैरान था, कि मेरे बारे में इतना जानने वाली कौन है आखिर !
तभी टेबुल पर रखे फोन की घण्टी बजी। मैंने रिसीवर उठाया, तो वही आवाज आई, जो इतने दिनों फोन पर सुनता आ रहा था। वह बोल रही थी ‘खुशामदीद किन अलफाज से शुक्रिया करूँ ! बस आ रही हूँ, दो मिनट में। उसकी आवाज के साथ शावर के पानी गिरने की आवाज आ रही थी।
अचानक वह फोन पर हँसने लगी। उसकी खिलखिलाहट तो बहुत जानी-पहचानी थी। अरे ! शेगी तुम ! मैं कह उठा। उसकी खिलखिलाहट और तेज हो गई, जैसे उस पर हँसी का दौरा पड़ गया हो।
मुझे रोमांच हो आया, शेगी उर्फ शुभांगी, मेरी स्कूल तथा कालेज की सहपाठी थी। प्री-मेडिकल तक। हम दोनों में काफी दोस्ताना था, लगाव था, जो शायद प्रेम में बदल जाता। परन्तु उसके पिता फ़ॉरेन चले गए थे, सबको लेकर। और फिर यादों के आइने पर धूल की परत चढ़ गई। मैं सोच भी नहींं सकता था कि इतने बरसों, लगभग बीस बरसों बाद उससे मुलाकात होगी और वह भी इस रहस्यमय तरीके से।
यह शुभांगी की बचपन की आदत है। वह पहले भी, लोगों को अक्सर अचम्भित करती रहती थी।
वह कहने लगी, सीधी रोम से आ रही हूँ। फोन भी वहीं से करती थी। मेरा दिल जोरों से धड़क रहा था, किसी किशोर दिल की मानिन्द, जो पहली बार अपनी प्रेमिका से मिलने आया हो। थूक और सांस गले में अटकते से महसूस हुए। फिर यह सोच कर कि शुभांगी मुझसे बात करते हुए नहा रही थी, मेरे माथे की नसें फटने को हो आई। शुभांगी मेरी कक्षा की सबसे सुन्दर लड़की थी। इतनी सुन्दर कि उससे बात करते हुए आम लड़के हकलाने लग जाते थे। वह अपनी तरह की एक ही थी, बेलौस बेबाक।
हम क्योंकि, बचपन से इकट्ठे एक ही कालोनी तथा एक ही स्कूल में थे, अत: मुझ में उसके प्रति कोई काम्पलेक्स नहीं था। मात्रा एक बार, जब वे लोग देश छोड़कर जा रहे थे, तो मुझे लगा था, कि मेरे भीतर का कोई अहम~हिस्सा टूटकर जा रहा हो। उन दिनों मैं काफी उदास हो गया था। जाने से पहले दिन, कालोनी के पार्क में हम दोनों मिले थे, तब मुझे लगा था कि शुभांगी को भी, मेरी तरह ही कुछ खोने का अहसास था। हम दोनों पार्क की बैंच पर, अँधेरा होने तक बैठे रहे थे। जब जाने के लिए उठे, तो शुभांगी ने अचानक मेरा चेहरा हाथों में लेकर चूम लिया था। इससे पहले कि मैं इस अनायास झटके से बाहर आता, वह भाग ली थी। मैं उसके पीछे भागा‘ठहर, मेरी उधार देकर जा।’ बचपन से ही हम एक-दूसरे की पीठ पर घूँसे जमाते आए थे और जो घूँसा लगाकर भाग जाता था तो दूसरा उसे उधारी मान लेता था। उस दिन जाते-जाते शुभांगी कह गई थी, उधार अगले मिलन पर। पर अगला मिलन कभी नहीं हुआ। उधर शुभांगी फोन पर कह रही थी कि कहाँ खो गए, तुम्हारी उधार देने आई हूँ। मैं कह उठा, बाहर तो आओ, सूद समेत वसूल करूंगा। उसने फोन रख दिया। मैं एक अजीब उन्माद में फँसा, शुभांगी की प्रतीक्षा करने लगा। जाने कितनी अतृप्त इच्छाएँ जागृत हो उठीं। फिर इस माहौल व एकान्त की मादकता का भी प्रभाव रहा होगा। शुभांगी ने टेलीफोन का रिसीवर, शायद हैंगर पर टाँग दिया था, क्योंकि पानी की कलछल के साथ, उसके गुनगुनाने की आवाज भी मुझे फोन पर सुनाई दे रही थी। शुभांगी का स्वर, आरम्भ से ही मीठा एवं लय लिए हुए था।
मैं दिवास्वप्न में डूब गया। शुभांगी का उस शाम का चेहरा, जब हम आखिरी बार पार्क में बैठे थे, मेरी आँखों के सामने तैर गया। वह हमेशा से ही चंचल, चुलबुली, अलबेली, मस्त-मौला रही है। पर उस शाम पार्क में वह खोई सी अनमनी-सी बैठी रही थी। मात्रा मैं जो बहुत कम बोलने वाला समझा जाता हूँ, बोलता रहा था। वह हाँ ना में जवाब देकर अपनी उँगलियाँ उमेठती बैठी थी। फिर अचानक उठकर मुझे चूमकर भाग निकली थी।
वही था हमारा, आखिरी मिलन। यही उधार थी जिसे चुकाने का इशारा वह टेलीफोन पर कर रही थी। मुझ पर एक अजीब रोमांच हावी था। तभी हल्के से, बाथरूम का दरवाजा खुला। खुशबू का एक रेला तैर कर मुझ तक पहुँच गया। शायद यह आगे आने वाले खुशबुओं के तूफान का नामवर था। फिर शुभांगी बाहर आई। उसके ब्वायकट बाल, उसका थुल-थुल बदन, उसके लगभग पारदर्शी गाउन से बाहर निकल पड़ रहा था। अधेड़ उम्र उसके शरीर ही नहीं चेहरे तथा आँखों पर भी, धावा बोल चुकी थी। मैं भौचक्का सा रह गया।
शुभांगी आकर सामने बैठ गई। कहने लगी,‘बहुत दिन तड़पाया है तुमने।’ टेलीफोन पर भी नहीं पहचाना। और सुनाओ।
मैं केवल यह कह पाया सब ठीक है। फिर हाथ मुंह धोने की कहकर, बाथरूम भाग लिया। बाथरूम में आकर एक लम्बी साँस ली और वाश-बेसिन के नल को खोल, सिर उसके नीचे रख दिया और सोचने लगा। हे राम ! कहाँ फँस गया इस बबाल में। कुछ देर पानी चलता रहा था। सिर में ठण्डक पड़ी। मैंने सिर ऊपर उठाया तो सामने आइने में अपनी सूरत दिखलाई पड़ी-ओह, तो क्या शुभांगी भी यही कुछ नहींं सोच रही होगी। वह क्या किसी खल्वाट लिए, पेट निकले अधेड़ की उधार चुकाने आई थी ?
वक्त, किसी को नहीं छोड़ता। मात्र हम स्वयं, अतीत से चिपके रहते हैं। चलो बाहर चलकर देखा जाए, क्या होता है ?
शुभांगी वहीं, उसी कुर्सी पर बैठी थी। उसने होल्डर लगी सिग्रेट सुलगा रखी थी। बीयर की बोतल खुली पड़ी थी। दो गिलास भरे पड़े थे पर शायद वह भी इस मुलाकात के सदमे को सहन नहीं कर पाई थी। अत: शिष्टाचार को ताक पर रखकर बीयर पीने लग गई थी। मुझे बाहर आया देखकर कहने लगी, ओ‘आओ नरेश ! बैठो और सुनाओ, क्या हाल है ? क्या वक्त सचमुच बेरहम नहीं है ?
उसने मेरी ओर, और फिर दीवार पर लगे आइने में अपने पर नजर डालते हुए कहा,‘चलो आज अपनी बीती उम्र का मातम मनाने के लिए पीते हंै
मैंने बीयर का भरा गिलास उठाकर, उसके हाथ में लगभग आधे हुए गिलास से, टकराकर कहा‘चियर्स ! और फिर हम दोनों खोखली हँसी हँस पड़े।




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Wednesday, January 20, 2010

जीवन भी क्या खूब तमाशा है

पल में तोला,पल में माशा है
जीवन भी क्या खूब तमाशा है

मुंह में डालो बस घुल जाएगा
यारो ,ग़म क्या एक बताशा है

मेरे मन में तो है रहती हरदम
तुझसे मिलने की अभिलाषा है



वक्त बुरा है तब ही तो बैठी
हर इक मन में आज हताशा है

लौट सदा जो आ जाती मन में
वो दोशीजा ही तो आशा है


ना समझो को समझाना होगा
यार गजल उल्फ़तकी भाषा है

‘श्याम’तुझे हम मान गये,तूने
गज़लों में माहौल तराशा है


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Wednesday, January 13, 2010

कुछ फ़ुटकर शे‘र-११

यूं भला कब तक मेरा इम्तिहान लोगे तुम
इस तरह तो एक दिन मेरी जान लोगे तुम

है खड़ी इक फ़स्ल गम की दिल में मेरे
दर्द की इस फ़स्ल का भी लगान लोगे तुम

एक पैसा दे के मैने दुआ थी चाही जब
कह उठा तब था फकीर आसमान लोगे तुम ?


फ़ाइलातुन,फ़ाइलातुन,मफ़ाइलुन,फ़ेलुन




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Monday, January 4, 2010

हम तुम्हारे है नहीं कुछ भी मगर

हम तुम्हारे है नहीं कुछ भी मगर
गर मिलें तो जिन्दगी जाये सँवर

बाँकी चितवन और थी तिरछी नजर
चढ़ गई तलवार ज्यों हो सान पर

घटता बढ़ता चाँद तो है बेवफ़ा
रात फ़िर भी है उसी की हमसफ़र

अब महाभारत रुके कैसे भला
आ खड़े हैं जब सभी मैदान पर

भूलना मुमकिन कहाँ है दोस्तो
देखना उसका मुझे यूं आँख भर

ख्वाब तो हैं मुफ़्त में ही बँट रहे
नींद लेकिन बिक रही है दाम पर

कौरवों में पाँडवो में था समर
आ गया इल्जाम लेकिन ‘श्याम‘पर



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