
हम भी कभी तो थे, कलैंडर आपकी दीवार के
बदरंग ब्यौरे भर हुए हम आज हैं तिथिवार के
हंसिये हथौड़े की व्यथा अब क्या सुनायें दोस्तो
इनके मसीहा खुद मुसाहिब बन गये बाजार के
है वक्त की कोई शरारत या गई फ़िर उम्र ढ़ल
आते नहीं पहले सरीखे अब मजे त्यौहार के
गिरमिटिये बनकर तब गये थे सात सागर पार हम
पर हैं बने हम बंधुआ अब अपनी ही सरकार के
हर पल बहाने ढूंढ़ते रहते हो तुम तकरार के
ये क्या तरीके हैं बसाने को `सखा' घर बार के
मुस्तफ़इलुन,मुस्तफ़इलुन,मुस्तफ़इलुन,मुस्तफ़इलुन
२ २ १ २.२ २ १ २.२ २ १ २.२ २ १ २.