Tuesday, November 6, 2012

जुल्फ़ तेरी छेड़ती है


हुस्न की ये बानगी है
दिल पे अपने आ बनी है

बेहिसी है बेकली है
हाय कैसी जिन्दगी है

जुल्फ़ तेरी छेड़ती है
ये हवा तो मनचली है

ख्वाब भी लगते पराये
अजनबी सी जिन्दगी है

 चाहता महबूब को हूं
क्या नहीं ये बन्दगी है

तेरे बिन लगता नहीं है
ये भी दिल की दिल्लगी है

खलबली दिल में मची है
क्या बला की सादगी है

हो के गुमसुम बैठना भी
‘श्याम’ की यायावरी है




मेरा एक और ब्लॉग http://katha-kavita.blogspot.com/

10 comments:

  1. ये दिल तुझ बिन कहीं लगता नहीं हम क्या करें .....

    खूबसूरत ग़ज़ल .......!!

    ReplyDelete
  2. बहुत खूब डॉक्टर साहब .
    सारांश तो हीर जी ने लिख ही दिया है. :)

    ReplyDelete
  3. khoobsoorat gazal Shyam bhai ! Badhaaee
    aur shubh kamna .

    ReplyDelete
  4. आप सभी का आभार.

    ReplyDelete
  5. हाय कैसी बेकसी है
    बात दिल पर जा लगी है .

    दीवाली की हार्दिक शुभकामनायें डॉ श्याम जी.

    ReplyDelete
  6. "हो के गुमसुम बैठना भी
    ‘श्याम’ की यायावरी है"

    बहुत खूब कहा !

    ReplyDelete


  7. ♥(¯`'•.¸(¯`•*♥♥*•¯)¸.•'´¯)♥
    ♥♥नव वर्ष मंगलमय हो !♥♥
    ♥(_¸.•'´(_•*♥♥*•_)`'• .¸_)♥



    चाहता महबूब को हूं
    क्या नहीं ये बंदगी है ?

    बेशक है साहब !

    आदरणीय डॉ. श्यामसखा श्याम जी
    ख़ूबसूरत ग़ज़ल है ...सारे शेर प्यारे हैं
    मुबारकबाद !

    नव वर्ष की शुभकामनाओं सहित…
    राजेन्द्र स्वर्णकार
    ◄▼▲▼▲▼▲▼▲▼▲▼▲▼▲▼▲▼▲▼►

    ReplyDelete