9[म.ऋ]
फ़ाइलातुन,फ़ाइलातुन,फ़ाइलातुन,
मेरा एक और ब्लॉग http://katha-kavita.blogspot.com/
जिन्दगी को जिन्दगी से छीनना था
मौत का कैसा हसीं ये हौसला था
वक्त ने कुछ इस तरह मुझको छला था
था कभी मैं आदमी अब बुलबुला था
हाय जादू कैसा ,तेरे हुस्न का था]
देखकर हर कोई जिसको मर मिटा था
थी जमीं महफ़िल वहाँ शे’रो-सुखन की
शे‘र जो भी था वो साँचे में ढला था
रूठना मेरा मनाना रोज उसका
सोचिये कितना हसीं वो सिलसिला था
बन रहा था सख्तजां बाहर से लेकिन
वो तो अन्दर से सरासर मोम सा था
थी हर इक रुख पर हँसी चिपकी हुई-सी
पर हर इक दिल में ही पसरा कर्बला था
उनकी महफिल का बयां अब क्या करें हम
जो भी था बजता हुआ इक झुनझुना था
सोचते होंगे कभी वो भी तो यारब
‘श्याम’ को बरबाद करके क्या मिला था
फ़ाइलातुन,फ़ाइलातुन,फ़ाइलातुन,
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आज की हमारी जीवन शैली के रंगों से साक्षात्कार कराती सुंदर ग़ज़ल - धन्यवाद्
ReplyDeleteवाह!!!वाह!!! क्या कहने, बेहद उम्दा
ReplyDeleteथी हर इक रुख पर हँसी चिपकी हुई-सी
ReplyDeleteपर हर इक दिल में ही पसरा कर्बला था
Lajawaab Shyaam ji ... aapki saveev gazal ka jawaab nahi ..
रूठना मेरा मनाना रोज उसका
ReplyDeleteसोचिये कितना हसीं वो सिलसिला था
बन रहा था सख्तजां बाहर से लेकिन
वो तो अन्दर से सरासर मोम सा था
थी हर इक रुख पर हँसी चिपकी हुई-सी
पर हर इक दिल में ही पसरा कर्बला था
वाह, बेहतरीन ! हर शेर एकदम बढ़िया !
वक्त ने कुछ इस तरह मुझको छला था
ReplyDeleteथा कभी मैं आदमी अब बुलबुला था
आपकी इस गज़ल ने दिल को छू लिया ……………हर शेर ज़िन्दगी की हकीकतो से रु-ब-रु करवा रहा है।
बन रहा था सख्तजां बाहर से लेकिन.....
ReplyDelete>
>
भीतर से नारियल की गुदा था :)
वक्त ने कुछ इस तरह मुझको छला था
ReplyDeleteथा कभी मैं आदमी अब बुलबुला था
थी जमीं महफ़िल वहाँ शे’रो-सुखन की
शे‘र जो भी था वो साँचे में ढला था
रूठना मेरा मनाना रोज उसका
सोचिये कितना हसीं वो सिलसिला था
बन रहा था सख्तजां बाहर से लेकिन
वो तो अन्दर से सरासर मोम सा था
थी हर इक रुख पर हँसी चिपकी हुई-सी
पर हर इक दिल में ही पसरा कर्बला था
सोचते होंगे कभी वो भी तो यारब
‘श्याम’ को बरबाद करके क्या मिला था
सच हर एक शेर लाजवाब दिल को अंदर तक छू लेने वाला था.गहरा प्रभाव मन पर पड़ा.काफ़ी देर तक जाने क्या सोचता रहा मन.
आप सभी की टिप्पणियां मेरे मन को छू लेती हैं मैं सचमुच नतमस्तक हूं,आप सरीखे गुणीजनों से मेरे जैसे अदना लेखक को बहुत सम्बल मिलता है---आभार....
ReplyDeleteआपकी इस गज़ल ने दिल को छू लिया बहुत बढिया!!
ReplyDeleteवक्त ने कुछ इस तरह मुझको छला था
ReplyDeleteथा कभी मैं आदमी अब बुलबुला था
बहुत ही मर्मस्पर्शी गज़ल है। आपका उर्दू ज्ञान तो क़ाबिले तारीफ़ है।
श्याम जी, मुआफ़ कीजिये, मेरी तसल्ली नहीं हुई..शिल्प पर मुझे कुछ नहीं कहना...विचार के स्तर पर श्याम जी से शायद मेरी तव्वकात ज़्यादा रही होंगी..गलती मेरी भी हो सकती है..
ReplyDeleteसादर
थी जमीं महफ़िल वहाँ शे’रो-सुखन की
ReplyDeleteशे‘र जो भी था वो साँचे में ढला था
क्या बात है साहब, वाह।
बहुत खूब, शाम सखा जी ।
ReplyDeleteडा0 साहब
ReplyDeleteगजल वाकई अच्छी है ,मजा आ गया, आपको बधाई
दुष्यन्त की गजल के मिसरे की याद दिला दी ' आदमी हैं हम नहीं हम झुनझुने हैं ' बहुत खूब ।