बहुत लोगों ने बहुत कुछ कहा है गज़ल के बारे में। मुझे लगता है कि हिन्दी भाषा में गीत एक पारम्परिक छंद होने के कारण आम साहित्य अनुरागी गीत की परिभाषा जानता समझता है अत: हिन्दी गज़ल क्षेत्र के नवांगन्तुक को पहले गीत व गज़ल में क्या अन्तर है समझ लेना चाहिये तब गज़ल लेखन में आगे बढ़्ना चाहिये। संक्षिप्त आलेख इस ओर एक कदम है कुछ उदाहरणों से आरम्भ करते हैं इस अन्तर को समझने के लिये ,
अ
१- बदला-बदला देख पिया को चुनरी भीगे सावन में
२-बस यह हुआ कि उसने तक्ल्लुफ़ से बात की
रो-रो के रात हमने दुपट्टे भिगो लिये
या
ब
१ मेरी उम्र से दुगनी हो गई
बैरन रात जुदाई की
२
ये न थी हमारी किस्मत कि विसाले यार होता
अगर और जीते रहते ,यही इन्तजार होता
स
१ जाग-जागकर काटूँ रतियां
सावन जैसी बरसें अँखियां
२ उठाके पाय़ँचे चलने का वो हंसी अन्दाज
तुम्हारी याद में बरसात याद आती है
अब देखिये इन तीनो उदाहरणों मे नंबर १ या नीले रंग से अंकित पंक्तियां गीतांश हैं और अंकितनं २ या गेरूए रंग से पंक्तियां शे‘र हैं
जबकि भाव एक ही हैं।यानि हम कह सकते हैं
कि गीत में स्त्रैण कोमलता है
,जबकि गज़ल कहने में पुरुषार्थ झलकता है।
या गीत सीधे-सरल राह से अभिव्यक्ति का माध्यम है,
वहीं गज़ल एक पहाडी घुमावदार पगडंडी है।
जैसे पहाड़ी पगडंडी पर पहली बार सफ़र कर रहे मुसाफ़िर को यह पूर्व अनुमान नहीं होता कि
अगले मोड़ पर पगडंडी दाईं तरफ़ मुड़ेगी या बाईं तरफ़,ऊपर की और पहाड़ पर चढ़ेगी
या आगे ढ़्लान मिलेगा इसी तरह शे’र के पहले मिस्रे[पंक्ति] को सुन या पढकर श्रोता या पाठक जान ही नहीं पाता किअगले मिस्रे मेंशायर क्या कहेगा।और अनेक बार दूसरा मिस्रा श्रोता को चमत्कृत कर जाता और यह चमत्कृत करने का अन्दाज ही ग़ज़ल की खसूसियत है-इसे और महसूस करें
और चमत्कृत हुआ महसूस करें
ये शे’र वसीम बरेलवी साहिब के हैं।
अपनी सुबह के सूरज उगाता हूँ खुद
[अब थोड़ा रुक कर सोचिये कि आगे क्या कहा जा सकता है ?]
जब्र का जहर कुछ भी हो पीता नहीं
[अब थोड़ा रुक कर सोचिये कि आगे क्या कहा जा सकता है ?]
जमीन तो जैसी है वैसी ही रहती है लेकिन
[यहां भीथोड़ा रुक कर सोचिये कि आगे क्या कहा जा सकता है ?]
अब ये तीनो शे’र पूरे पढ़ें और देखें आप चमत्कृत होते हैं या नहीं
अपनी सुबह के सूरज उगाता हूं खुद
मैं चरागों की सांसो से जीता नहीं
जब्र का जहर कुछ भी हो पीता नहीं
मैं जमाने की शर्तों पे जीता नहीं
जमीन तो जैसी है वैसी ही रहती है लेकिन
जमीन बाँटने वाले बदलते रहते हैं
एक और बात
यति और गति या ग्त्यात्मकता और लयात्मक्ता के बिना गज़ल का अस्तित्व ही नहीं हो सकता।क्योंकि गज़ल की बुनियाद सरगम की तरह संगीत के आधार पर[और कहें तो गणित के आधार पर] टिकी है।गज़ल का हर शे‘र अपने आप में सम्पूर्ण तो होता ही है,
वह श्रोता या पाठक को अद्भुत,आकर्षक,अनजाने और एक निराले अर्थपूर्ण अनुभव तक ले आने में सक्षम होता है।
देखें कुछ उदाहरण
चाँद चौकीदार बनकर नौकरी करने लगा
उसके दरवाजे के बाहर रोशनी करने लगा
चाँद को चौकीदार केवल गज़ल का शायर ही बना सकता है
बाल खोले नर्म सोफ़े पर पड़ी थी इक परी
मेरे अन्दर एक फ़रिश्ता खुद्कुशी करने लगा
अब बतलाएं फ़रिश्ते को खुद्कुशी करवाना शायर ,गज़ल के शायर् के अलावा और किसके वश में है।
ऐसा विचित्र एवम चमत्कृत करने वाला अनुभव साहित्य की किस विधा में मिल सकता है
कुछ और उदाहरण देखें
तुझे बोला था आँखे बंद रखना
खुली आँखों से धोखा खा गया ना
मेरे मरने पे कब्रिस्तान बोला
बहुत इतरा रहा था आ गया ना
(जनाब-दिनेश दर्पण)
मित्रो एक बात और गज़ल की सारी कमनीयता,सौष्ठव व चमत्कृत करने की क्षमता बहर या छंद पर ही टिकी है.
हम कह सकते हैं कि गज़ल शब्दों की कलात्मक बुनकरी है ।
अगर हम उपरोक्त शेर को बह्र के बिना लिखें
मरने पे मेरे कब्रिस्तान बोला
इतरा रहा था बहुत आ गया ना
आप ही कहें सारे शब्द वही हैं ,केवल उनका थोड़ा सा क्रम बदलने से क्या वह आनन्द जो पहली बुनकरी में था,गायब नहीं हो गया।बस इसी लिये बहर का ज्ञान आवश्यक है।
[ मित्रो ! मैं अपनी यूरोपिय यात्रा के अन्तिम चरण में व्यस्त होने के कारण नई गज़ल पोस्ट नहीं कर पा रहा था अत: यह संक्षिप्त आलेख जो ब्लॉग जगत व अनेक पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ और पसन्द किया गया ,यहां दोबारा पोस्ट कर रहा हूं ३० अगस्त को भारत लौटकर नई ग़ज़ल नियमित पोस्ट होगी वादा रहा तब तक इस का लुत्फ़ उठाएं ]
bahut hi badhiya barikiyon ka gyan aapne diya..........shukriya.
ReplyDeleteबहुत बढिया।
ReplyDeleteवाह श्यामजी,
ReplyDeleteबहुत ख़ूब !
बधाई !
श्याम जी बहुत ही खुब ............शब्द क पड रहे है ............सुन्दर
ReplyDeleteshyam ji, saara lekh badi tanmayta se padha. padh kar bahut achcha laga , bahut umda sher shamil kiye hain , nai jaankaarian hasil huin, aise lekh bhi likhte rahen. aur hum nai rachna ke intzaar men.
ReplyDeleteबहुत बढिया पोस्ट !!आभार।
ReplyDeleteआपने नई कोपलों को खिलने का सलीका बहुत खुबसूरती से सिखाया है -बहुत उम्दा जानकारी है
ReplyDeleteThanks Shyam ji...
ReplyDeleteagain reading this post, revised my concepts.
itni detailed presentation maine pehle kabhi nahi dekhi....
ReplyDeletebahut achi lagi padhne mein...
shukriya and badhaai...
दोस्तो
ReplyDeleteइस रचना को दोबारा पसन्द करने हेतु आभार,सुप्रसिद्ध गजलकार मित्र गोबिन्द गुलशन ने बतलाया कि मैं एक शायर का नाम गलत लिख गया हूं वे जनाभ दिनेश दर्पण हैं अब पोस्ट में ठीक कर दिया है
भाई गुलशन जी का दोबार धन्यवाद १ मेरे ब्लाग पर आने हेतु,२मुझे अनेक बार मेरी रचनाओं की कमी बतलाने हेतु,और केवल वही नहीं भाई सर्वत जमाल सहित अनेक सशक्त गज़लगो यहां आकर मुझे अपने स्नेह से आपल्लवित करते हैं व मेरी रचनाओं की कमी भी मेल से बताते हैं इस हेतु उन सबका आभार।
श्याम सखा श्याम
आपका ये अप्रतिम आलेख पहले ही पढ़ चुका हूँ, जो मेरे जैसे ग़ज़ल-छात्रों के लिये नये राह खोलता है।
ReplyDeleteयात्रा कैसी चल रही है गुरूवर?
ग़ज़ल लेखन के बारें में जानकारियां देने हेतु शुक्रिया.
ReplyDeleteआशा है भविष्य में और भी लेख पढने को मिलेगें.
हार्दिक आभार
चन्द्र मोहन गुप्त www.cmgupta.blogspot.com
बहुत बढ़िया लिखा है आपने! अच्छी जानकारी प्राप्त हुई आपके पोस्ट के दौरान! धन्यवाद!
ReplyDeleteमहत्वपूर्ण आलेख......
ReplyDeleteभाईसाहब संभव हो तो अपनी पुस्कृत कृतियां भेजें. पता शायद आपकी पुरानी डायरी में हो फिर भी लिख रहा हूं --------ःःः
योगेन्द्र मौदगिल, २३९३-९४, न्यू हाउसिंग बोर्ड, सैक्टर १२, पानीपत १३२१०३
मो ९८९६२०२९२९, ९४६६२०२०९९