Tuesday, November 6, 2012

जुल्फ़ तेरी छेड़ती है


हुस्न की ये बानगी है
दिल पे अपने आ बनी है

बेहिसी है बेकली है
हाय कैसी जिन्दगी है

जुल्फ़ तेरी छेड़ती है
ये हवा तो मनचली है

ख्वाब भी लगते पराये
अजनबी सी जिन्दगी है

 चाहता महबूब को हूं
क्या नहीं ये बन्दगी है

तेरे बिन लगता नहीं है
ये भी दिल की दिल्लगी है

खलबली दिल में मची है
क्या बला की सादगी है

हो के गुमसुम बैठना भी
‘श्याम’ की यायावरी है




मेरा एक और ब्लॉग http://katha-kavita.blogspot.com/