Sunday, February 20, 2011

गर न समझे वो,--------gazal

 12 न.ह

वो जो उलझे हैं सुलझ भी जाऍँगे
बीते पल लेकिन न फिर आ पाएँगे

सर उठाकर जो नहीं चल पाएँगे ,
लोग वो सिक्कों मे ही ढ़ल जाएँगे


वे हमें ,हम भी उन्हें समझाएँगे
गर न समझे वो, समझ हम जाएँगे

अपना दामन साफ रखने के लिये
दाग़ दिल पर हाँ सभी तो खाएँगे

है बदलना,वक्त जिनको ‘श्याम’ जी
सामने आकर वही सर कटवाएँगे



फ़ाइलातुन,फ़ाइलातुन,फ़ाइलुन



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Friday, February 18, 2011

क्यों रुलाऊं धूप को- गज़ल किशन तिवारी

 आज मै अपने मित्र प्रसिद्ध गीतकार किशन तिवारी की गज़ल जो मुझे बहुत पसन्द है पोस्ट कर रहा हूं- देखें आपको कैसी लगती है

 चाहता हूँ भींचकर मुट्ठी में बांधू धूप को
धूप के बदले में केवल चाहता हूं धूप को

वो बुलाती   मुझको आंगन में कभी छत पर कभी
 सोचता हूं मैं कभी घर में बुलाऊं धूप को

 मुस्कराती है कभी हँसती ठहाका मारकर
मैं सुना अपनी कहानी क्यों रुलाऊं धूप को

मैं कभी बेचैन होता हूं  बहुत जब रात  को
है बहुत  हारी थकी अब क्यों जगाऊं धूप को

आपने चाहा मिटा दें रोशनी का ही वजूद
मेरी कोशिश है कि मैं बच्चों में बांटू धूप को




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Sunday, February 13, 2011

ये चुपके-चुपके ही आ बैठता है बस दिल में -गज़ल

१०n

उसे वहाँ कोई अपना नजर नहीं आता
तभी तो देर तलक वो भी घर नहीं आता

हमारे बीच ये दीवार क्यों है आन खड़ी
उधर मैं जाता नहीं,वो इधर नहीं आता

हमेशा जाती है मिलने नदी समुन्दर से
समुन्दर उससे तो मिलने मगर नहीं आता


 

तुझे है मुझसे मुहब्ब्त मैं मान लूँ कैसे
तेरी नजर में वो मंजर नजर नहीं आता

ये चुपके-चुपके ही आ बैठता है बस दिल में      
कि रंजो-ग़म कभी  देकर खबर नहीं आता

मैं खुद ही उससे मुलाकात को हूँ चल देता
कि मुझसे मिलने कभी ग़म अगर नहीं आता

हुई क्या बात कोई तो बताये ‘श्याम’ हमें
क्यों रात-रात तू घर लौटकर नहीं आता

 

मफ़ाइलुन. फ़इलातुन मफ़ाइलुन फ़ेलुन

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Saturday, February 5, 2011

वक्त ने कुछ इस तरह मुझको छला था-gazal

 9[म.ऋ]

जिन्दगी को जिन्दगी से छीनना था
मौत का कैसा हसीं ये हौसला था


वक्त ने कुछ इस तरह मुझको छला था
था कभी मैं आदमी अब बुलबुला था

 हाय जादू कैसा ,तेरे हुस्न का था]
देखकर हर कोई जिसको मर मिटा था

थी जमीं महफ़िल वहाँ शे’रो-सुखन की
शे‘र जो भी था वो साँचे में ढला था   

रूठना मेरा      मनाना रोज उसका
सोचिये कितना हसीं वो सिलसिला था

बन रहा था सख्तजां बाहर से लेकिन
वो तो अन्दर से सरासर मोम सा था

थी हर इक रुख पर हँसी चिपकी हुई-सी
पर हर इक दिल में ही पसरा कर्बला था

उनकी महफिल का बयां अब क्या करें हम
जो भी था बजता हुआ इक झुनझुना था

सोचते होंगे     कभी वो भी तो यारब
‘श्याम’ को बरबाद करके क्या मिला था


फ़ाइलातुन,फ़ाइलातुन,फ़ाइलातुन,



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