Thursday, December 30, 2010

है नया अन्दाज दिलबर तेरा--गज़ल

2

जिन्दगी से इक दुआ मांगी थी
मौत कब हमने भला मांगी थी

मौत से हमने दया मांगी थी
याने हाकिम से सजा मांगी थी

रूठ क्यों हमसे गई तू हवा
चुलबुली-सी इक अदा मांगी थी

है नया अन्दाज दिलबर तेरा
बेवफाई दी वफा मांगी थी

खिड़कियाँ सब खोल दीं उसने तो
रोशनी कुछ, कुछ हवा मांगी थी

बख्श दी क्यों मौत ही मौला
हमने तो तुमसे दवा मांगी थी

क्यों गिला तुमसे करेंश्याम हम
क्यों घुटन दे दी हवा मांगी थी
फ़ाइलातुन,फ़ाइलातुन, फ़ेलुन









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Saturday, December 25, 2010

ख्वाब बेगाने न दे मौला -गज़ल

1
गर खुदा खुद से जुदाई दे
कोई क्यों अपना दिखाई दे

काश मिल जाये कोई अपना
रंजो-गम से जो रिहाई दे

जब न काम आई दुआ ही तो
कोई फिर क्योंकर दवाई दे

ख्वाब बेगाने न दे मौला
नींद तू बेशक पराई दे

तू न हातिम या फरिश्ता है
कोई क्यों तुझको भलाई दे

डूबने को हो सफीना जब
क्यों किनारा तब दिखाई दे

आँख को बीनाई दे ऐसी
हर तरफ बस तू दिखाई दे

साथ मेरे तू अकेला हो
अपनी ही बस आश्नाई दे


फ़ाइलातुन,फ़ाइलातुन


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Sunday, December 19, 2010

देख लो तुम मुझे सजा देकर- गज़ल

5 [म.ऋ]
आज कुछ कर गुजरने वाला हूँ
बन के खुशबू बिखरने वाला हूँ

तोड़ दो कसमें, दो भुला वादे
मैं तो खुद भी मुकरने वाला हूँ

टूटकर बिखरा हूं इस तरह यारो
अब कहाँ मैं संवरने वाला हूँ


जिन्दगी कर दे हसरतें पूरी
खुदकुशी अब मैं करने वाला हूँ

देख लो तुम मुझे सजा देकर
मै भला कब सुधरने वाला हूँ


फ़ाइलातुन,मफ़ाइलुन,फ़ेलुन



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Wednesday, December 1, 2010

गुल गुलामी करे है मौसम की- दो शे‘र

सुनते हैं दिल में प्यार रहता है
फ़िर भी दिल बेकरार रहता है
गुल गुलामी करे है मौसम की
मस्त हर वक्त खार रहता है

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Monday, November 29, 2010

एक फुट्कर शेर

सुनते हैं दिल में प्यार रहता है
फ़िर भी दिल बेकरार रहता है
गुल गुलामी करे है मौसम की
मस्त हर वक्त खार रहता है
 




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Tuesday, September 21, 2010

बेवफ़ाई थी उसकी फ़ितरत में - gazal

 जिन्दगी कब है मो‘तबर बाबा
ये तो है आरज़ी सफ़र   बाबा

बेवफ़ाई थी उसकी फ़ितरत में
जान दी हमने  जानकर बाबा

मेरे अश्कों मेरे नालों का
आप पर भी हुआ असर बाबा

जिसके साये में प्यार पलता है
काट देंगे वही शजर  बाबा

खुशियां घटती नहीं हैं बँटने से
दर्द बढ़ता है   फ़ैलकर   बाबा

`श्याम’सच्चा है,सीधा सादा है
इसको आता नहीं हुनर बाबा

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Thursday, September 9, 2010

सबको खूब खला था वो- गज़ल

सबको खूब खला था वो
मानुष एक भला था वो

काटा जितनी बार गया
उतनी बार फला था वो

रीझ गई वृषभानुलली
आखिर नन्दलला था वो

जिसने जैसा ढाला था
वैसा ठीक ढ़्ला था वो

मन्जिल खुद ही आ पहुंची
गिर-गिर कर संभला था वो

सबके गम लेकर भागा
कह्ते सब पगला था वो

याद करे है अब भी ‘श्याम’
यू इक बार मिला था वो

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Thursday, August 26, 2010

दुनिया-भर के ग़म थे/ और अकेले हम थे-gazal


दुनिया-भर के ग़म थे
और अकेले हम थे

साथ न कैसे देते
ग़म भी आखिर ग़म थे

टीस बहुत थी सुर में
बस स्वर ही मद्घम थे

खुशियाँ दूर सदा ही
ग़म  मेरे हमदम थे

सपने भंग हुए क्या
दिल दरहम-बरहम थे

आँखें तो गीली थीं
सूखे मन-मौसम थे

'श्याम’ सँवरते कैसे
सब किस्मत के खम थे

७२ dbg
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Thursday, August 19, 2010

काश मिल जाये कोई अपना -gazal


1
गर खुदा खुद से जुदाई दे
कोई क्यों अपना दिखाई दे

काश मिल जाये कोई अपना
रंजो-गम से जो रिहाई दे

जब न काम आई दुआ ही तो
कोई फिर क्योंकर दवाई दे

ख्वाब बेगाने न दे मौला
नींद तू बेशक पराई दे

तू न हातिम या फरिश्ता है
कोई क्यों तुझको भलाई दे

डूबने को हो सफीना जब
क्यों किनारा तब दिखाई दे

आँख को बीनाई दे ऐसी
हर तरफ बस तू दिखाई दे

साथ मेरे तू अकेला हो
अपनी ही बस आश्नाई दे

फ़ाइलातुन,फ़ाइलातुन फ़ा



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Tuesday, August 10, 2010

मैं गुनहगार न होता तो फरिश्ता होता-गज़ल

ख्वाब हर हाल में है यार भला सा होता
मैं गुनहगार न होता तो फरिश्ता होता

टूटता घर न हमारा यूं कभी भी जानम
दिल में तेरे भी अगर प्यार जरा सा होता

चाँद जैसा है बदन झील सी तेरी आंखें
तुझ पे हर कोई फिदा होता न तो क्या होता

तू चली आती है छत पर जो अकेली जानम
चाँद को ख्वाब सरीखा सा है धोखा होता

जिन्दगी भर है जिसे ख्वाब में पूजा मैने
रूबरू होता अगर वो तो करिश्मा होता

यार इलजाम भला  क्या  तू लगाता मुझपर
झांक कर दिल में कभी अपने  जो देखा होता


क्या बिगड़ते यूं सभी काम तुम्हारे हमदम
बात करने का अगर तुमको सलीका होता

बेवफ़ा‘श्याम’अगर होता नहीं  जो यारो
आठवां फिर तो वो दुनिया  का अजूबा होता


फ़ाइलातुन,फ़इलातुन.फ़इलातुन ,फ़ेलुन


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Sunday, August 1, 2010

चल रहा हूं अकेला दोस्तो= गज़ल

 खुशबुओं का सफर है जिन्दगी
अजनबी सी मगर है जिन्दगी

फ़िक्र तेरी मेरी सभी की है
खुद से पर बेखबर है जिन्दगी

साँस धड़कन ही सिर्फ है नहीं
 है कलेजा जिगर है जिन्दगी

सुर्खियों की ललक ने दी बना
हादसों की खबर है जिन्दगी

 औरतों के नसीब से लगा
बेबसी का नगर है जिन्दगी

चल रहा हूं अकेला दोस्तो
अब कहां हमसफर है जिन्दगी

मौत मन्जिल अगर है”श्याम जी’
साँस की बस डगर है जिन्दगी



फ़ाइलुन,फ़ाइलुन,मफ़ाइलुन
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Saturday, July 17, 2010

सुलझा दिया इक बार तो सौ बार उलझाया हमें-gazal

मिलना है गर तुझको कभी सचमुच ही ग़म से जिन्दगी

तो आके फिर तू मिल अकेले में    यूं  हमसे जिन्दगी




हाँ आज हम इनकार करते हैं तेरी हस्ती से ही
खुद मौत माँगोगे, जियेंगे अपने दम से जिन्दगी




हर बार ही देखा तुझे है दूर से जाते हुए
इक बार तो आजा मेरे आँगन में छम से जिन्दगी



सुलझा दिया इक बार तो सौ बार उलझाया हमें
पाएं हैं ग़म कितने तेरे इस पेचो-खम से जिन्दगी




नाहक नहीं हैं हम इसे सीने से चिपकाये हुए
इस जख्म से सीखा है क्या-क्या पूछ हमसे जिन्दगी


हैं ‘श्याम’ गर मेरा नहीं, तो है पराया भी नहीं
कट जाएगी अपनी तो यारो, इस भरम से जिन्दगी





मुतफ़ाइलुन= चार बार











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Thursday, July 1, 2010

नहीं मिलती यहां पर मौत भी माँगे अगर कोई-गज़ल



   

चलो फूलों की इस बस्ती से  यूँ दो पल चुरा लें हम
कभी भँवरो की भी मस्ती से यूँ  दो  पल चुरा लें हम


नहीं मिलती यहां पर मौत भी माँगे  अगर  कोई
चलो फिर तो जबरद्स्ती से   यूँ दो पल चुरा लें हम

इशारे पर चलें जिसके हमेशा चाँद-तारे भी
भला क्यों आज उस हस्ती से यूँ  दो पल चुरा लें हम

 बहुत महंगी हुईं हैं खिलवतें  अबके बरस यारो
खड़ी इस भीड़ सस्ती यूँ दो पल चुरा लें हम

नहीं किस्मत हमारी ये कि हम पहुंचे किनारों पर
कि लहरों डूबती कश्ती से यूँ   दो पल चुरा लें हम

भला क्या कोई  पूछे है यहाँ ईमानदारी को
क्यों मतलब परस्ती से यूं दो पल चुरा लें हम

लगा हैश्यामतो करने खुराफाते नईं यारो
उसी की इस मटरगश्ती से यूँ दो पल चुरालें हम
मफ़ाईलुन,मफ़ाईलुन,मफ़ाईलुन,मफ़ाईलुन
कुछ दोस्तों को कश्ती व मटरगश्ती काफ़िये अटकेंगे वे इन्हे न पढें


 










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Tuesday, June 22, 2010

एक और इम्तिहान है-गज़ल

है जान तो जहान है
 फ़िर काहे का गुमान है

क्या कर्बला के बाद भी
 एक और इम्तिहान है

इतरा रहे हैं आप यूं
 क्या वक्त मेहरबान है

हैं लूट राहबर रहे
 जनता क्यों बेजुबान है

है ‘श्याम ’बेवफ़ा नहीं
हाँ इतना  इत्मिनान है





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Monday, June 14, 2010

हैं उठ रहीं मेरे मन में खराब-सी बातें-gazal


हैं उठ रहीं मेरे मन में खराब-सी बातें
थीं करनी तुमसे मुझे बेहिसाब-सी बातें

हो तुम  भी, हम भी हैं जब साफगो, उठीं फिर क्यों
हमारे बीच बताओ नकाब-सी बातें

बगैर जाम के मदहोश कर दिया उसने
रहा वो करता ही हर पल शराब-सी बातें

इलाही तुम ही हो क्या रूबरू मेरे ये कहो
हकीकतो में भी होती हैं ख्वाब-सी बातें

खुदा का जिक्र ही होता है कब जहाँ में अब
यहाँ तो होती हैं बस अब अजाब-सी बातें

समझनाश्यामको आसां नहीं कभी यारो
करे है वो तो सदा बस किताब-सी बातें

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Friday, June 11, 2010

फ़ुटकर शे‘र-१२- श्याम सखा ‘श्याम‘

जिन्दगी भर जिन्दगी खेल दिखाती है रही
जीतकर भी हारना मुझको सिखाती है रही


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Friday, June 4, 2010

मर गया मैं तो कौन पूछेगा-gazal

चुप रहूँगा तो अनकही होगी
गर कहूँगा तो दिल्लगी होगी

आया होगा बुझाने को तब कौन
आग पानी में जब लगी होगी

सो रहा दिन है तानकर चादर
रात तो सारी शब जगी होगी

मर गया मैं तो कौन पूछेगा
जिन्दगी मिस्ले-खुदकुशी होगी

बम गिरेंगे कभी जो धरती पर
शोर के बाद खामुशी होगी

मौत पीछा करेगी निश्चय ही
साथ गर तेरे जि़न्दगी होगी

दिल रकीबों के जल गए होंगे
तुझसे जब भी नजर लड़ी होगी

प्यास जब जाएगी गुजर हद से
होगा सागर न फिर नदी होगी

जब भी देखेंगे 'श्याम’ की मैयत
दुश्मनों को बहुत खुशी होगी




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Monday, May 24, 2010

चल छैंयां-छैय़ां वाली इस पीढी को तो---gazal

फूल बुरा लगता है,पान बुरा लगता है
जब टूटे दिल तो भगवान बुरा लगता है

चल छैंयां-छैय़ां वाली इस पीढी को तो
मीरा पगली और,रसखान बुरा लगता है

देव अतिथि होता होगा मेरे यार कभी
अब तो घर आया मेहमान बुरा लगता है

वक्त नया आया है,आये संस्कार नये
अब तो झूठ भला,ईमान बुरा लगता है

नव फ़्लैटों की झीनी-झीनी दीवारों में
सब कुछ सुनता सा यह कान बुरा लगता है

रिश्वत के इस अलबेले युग में,बिन रिश्वत के
मुझको काम हुआ आसान बुरा लगता है


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Monday, May 17, 2010

’मसीहा भी मुझको सजा दे गया

मुझे जिन्दगी की दुआ दे गया
मसीहा भी मुझको सजा दे गया


लगा डूबने बेखुदी में मैं जब
कोई मुझको तेरा पता दे गया


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Wednesday, May 12, 2010

हो गई फ़िर इक खता है- गज़ल

हो गई फ़िर से खता है
दिल तुझे जो दे दिया है













इश्क सचमुच इक बला है
खुद मजा है,खुद सजा है

इश्क सचमुच इक बला है
रोग भी खुद,खुद दवा है


गम से बचकर है निकलना
प्यार ही बस रास्ता है  



आ रही शायद वही है
दिल मेरा जो झूमता है


है हसीं अपनी धरा ये 
चाँद पीछे     घूमता    है



ढूंढता है ‘श्याम किसको
दिल हुआ क्या लापता है





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Monday, May 3, 2010

ये कैसी तकदीर लिखी मौला-गज़ल

ये कैसी तकदीर लिखी मौला
पावों जंजीर लिखी मौला मौला

सांसे दी ,धड़कन भी दी लेकिन
जीने की नहीं तदबीर लिखी मौला

 ढूंढ़ रहा है बेचारा रांझा
इस बार नहीं हीर लिखी मौला

नन्हे-मुन्नो की तख्ती पर क्यों
बात गुरू-गम्भीर लिखी मौला

फ़ूलो की महफ़िल में क्यों तूने
कांटो की तसवीर लिखी मौला 

श्याम सखा’ की किस्मत में तो बस
हर बार वही पीर लिखी मौला


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Tuesday, April 27, 2010

कोई तो मतलब होगा- gazal

होने को तो सब होगा
लेकिन जाने कब होगा

चाहेगा जब रब यारा
मिलना अपना तब होगा

जब तब खत लिखता है जो
कोई खैरतलब होगा

दंगो की फसलों का तो
बीज सदा मजहब होगा

नाहक मिलता वो कब है
कोई तो मतलब होगा

‘श्याम’ मिलेगा जब हमको
सचमुच यार गजब होगा


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Tuesday, April 20, 2010

वक्त मज़े में गुजरेगा- gazal

गिर-गिर कर तू सँभलना सीख
पल-पल रंग बदलना सीख

क्या पाया हँसकर अब तक
यार हसद में जलना सीख

दुनिया छलती है सबको
तू दुनिया को छलना सीख

पाँवों से सब चलते हैं
सर के बल तू चलना सीख

वक्त मज़े में गुजरेगा
हर  साँचे में ढलना सीख

हर साजिश को कर दे खाक
शोला बनकर जलना सीख

`श्याम' कभी बालक बन कर
मेले बीच मचलना सीख


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Monday, April 12, 2010

जिस्म तो तूने नवाजा, खूबसूरत है उसे

कोई मेरे जख्म सी दे, चैन आये तब कहीं

कोई मेरे गम खरीदे, चैन आये तब कहीं


जिस्म तो तूने नवाजा, खूबसूरत है उसे
गर कहीं से रूह भी दे, चैन आये तब कहीं


सूखकर सहरा हुए हैं, नैन मेरे देख तो
इनको सुख की भी नमी दे, चैन आये तब कहीं


छू रहे हैं दुश्मनों  के  हौसले आकाश को
उनको भी तू इक गमी दे चैन आये तब कहीं


है लबालब झोली मौसम की गमों से भर रही
फूलों को भी तू हँसी दे, चैन आये तब कहीं


हैं लगी लाशें भी अपना चैन खोने आजकल
मौत को भी जिंदगी दे चैन आये तब कहीं


अश्क तो तूने बहुत मुझको दिये हैं ऐ खुदा
पर लबों को तू हँसी दे चैन आये तब कहीं





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Tuesday, April 6, 2010

रोज लड़े हम तुम--gazal

राहत के दो पल
आंखो से ओझल

रोज लड़े हम तुम
निकला कोई हल

न्यौता देतीं नित
दो आंखे चंचल





झेल नहीं पाए
हम अपनो के छल

भीड़ भरे जग से
दूर कहीं ले चल

मौन तुझे पाकर
चुप है कोलाहल

कितने गहरे हैं
रिश्तों के दलद्ल

`श्याम' मिलेंगे ही
आज नहीं तो कल

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Wednesday, March 31, 2010

फ़रेब छल,झूठ आप रखिये सँभाल साहिब-gazal

रहेंगे हम, घर में अपने ही मेहमान कब तक
रखेंगे यूं बन्द ,लोग अपनी जुबान कब तक

फ़रेब छल,झूठ आप रखिये सँभाल साहिब
भरोसे सच के भला चलेगी दुकान कब तक

चलीं हैं कैसी ये नफ़रतों की हवायें यारो
बचे रहेंगे ये प्यार के यूं मचान कब तक

हैं कर्ज सारे जहान का लेके बैठे हाकिम
चुकाएगा होरी,यार इनका लगान कब तक

इमारतों पर इमारतें तो बनायी तूने
करेगा तामीर प्यार का तू मकान कब तक

रही है आ विश्व-भ्रर से कितनी यहां पे पूंजी
मगर रहेंगे लुटे-पिटे हम किसान कब तक

रहेगा इन्साफ कब तलक ऐसे पंगु बन कर
गवाह बदलेंगे आखिर अपना बयान कब तक

दुकान खोले कफ़न की बैठा है 'श्यम' तो अब
भला रखेगा 'वो' बन्द अपने मसान कब तक


मफ़ाइलुन फ़ा,मफ़ाइलुन फ़ा,मफ़ाइलुन फ़ा



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Tuesday, March 23, 2010

खुदकुशी ठान ली चिरागों ने-गज़ल



 दिल में लेकर जो  प्यास बैठीं हैं
क्यों समन्दर के पास बैठी हैं

 

पालकी के यूं पास बैठी हैं
सारी सखियां उदास बैठी है

खुदकुशी ठान ली चिरागों ने
ऑंधियां बदहवास बैठी हैं


मौत ने खत्म कर दिये शिकवे
सौतनें आस पास बैठी हैं

बेटे आफ़िस,बहुएं गईं दफ़्तर
घर सँभाले तो सास बैठी हैं

हो गई खत्म नस्ल रांझों की
हीर सारी उदास बैठी हैं

‘श्याम’ के आसपास बैठी हैं
गोपियां कर के रास बैठी हैं

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Monday, March 15, 2010

मत जुबाँ सी, अरे ‘श्याम’ तू

दर्द दिल में है पर मुस्करा
साँस खुलकर ले और खिलखिला


कर्ज तेरा है तू ही चुका
सर मगर अपना तू मत झुका

हाँ गिले-शिकवे होंगे सदा
तोड़ मत प्यार का सिलसिला

गर नहीं दम कि सच कह सके
बैठ तू बन कर इक झुनझुना

मत जुबाँ सी, अरे ‘श्याम’ तू
चोट खाई है तो बिलबिला

फ़ाइलुन,फ़ाइलुन,फ़ाइलुन
2111, 2111, 2111,



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-थप्पड़-----कहानी

   

    झूठी कहानी लिखना, मेरे वश की बात नहीं है । क्योंकि झूठी कहानी लिखने वाले को, सच का गला घोंट कर मारना पड़ता है ।  वैसे सच कभी नहीं मरता । सच न पहले मरा है न आगे कभी मरेगा । मरता है सिर्फ झूठ बोलने वाला और चूंकि मैं अभी मरना चहीं चाहता इसलिए झूठी कहानियाँ नहीं लिखता ।
                                               आपने प्रेम की अनेक कहानियाँ पढ़ी होंगी और उसमें भी 'प्लेटोनिक लव' यानि वह प्रेम जिसमें शारीरिक संबन्ध नहीं होता की कहानियाँ भी पढ़ी होंगी । हो सकता है समय, मजबूरी, संस्कारों के कारण या अपनी कायरतावश या मौके की नजाकत की वजह से या किन्हीं और कतिपय कारणों से यह संबन्ध स्थापित न हुए हों । लेकिन उन स्त्री-पुरुष दोस्तों के मन में जो एक-दूसरे को चाहते रहे हैं कभी भी शारीरिक संबन्धों की इच्छा पैदा न हुई हो मैं नहीं मानता ।
                        मैं आपसे पहले ही कह चुका हूँ कि मैं झूठी कहानी नहीं कहता । उम्र के इस पड़ाव तक अनेक संबन्ध जिए हैं मैंने तथा अनेक संबन्धों में मरा भी हूँ । जो संबन्ध जितने अधिक निकट थे वे उतनी जल्दी गल-सड़ गए तथा मर गए । यह केवल मेरे साथ ही हुआ हो ऐसा नहीं है । हम में से अनेक लोग समझौतों की राख इन गन्धाते संबन्धों पर डालकर जीने का नाटक करते हुए मरते रहते हैं । हाँ, तो मैं कह रहा था कि ऐसे अनेक संबन्ध मैंने भी जिए हैं । यहाँ मैं अपने पहले संबन्ध की बात करना चाहूँगा । $िजक्र उस वक्त का है, जब हर किशोर की मसें भीगने लगती हैं । मन में एक अजीब-सी गुदगुदी होने लगती है और शरीर की बोटियाँ किसी को आलिंगन में कसने को आतुर हो उठती हैं
                             इसी तरह का परिवर्तन किशोरियों में भी आता है । उसे अंग्रेजी में 'प्यूबरटी' कहते हैं । उनके शरीर के अवयव अचानक उभरने लगते हैं । आँखें लज्जा से झुकने लगती हैं, कनखियों से हमउम्र लड़कों को देखना उनका स्वभाव बन जाता है । शरीर बार-बार चाहता है कि कोई अपनी बलिष्ठ बाहों के आलिंगन में लेकर मन की इस अबूझ प्यास को बुझा दे ।
                           सो बात उन्हीं गधा-पचीसी के दिनों की है,  जब मैं सीनियर सैकेन्डरी के इम्तिहान देकर ननिहाल आया हुआ था । उस जमाने में सभी बच्चे छुट्टियों में अपने मामा-नाना के यहाँ जाते थे । क्योंकि वही एक मात्र स्थान होता था जहाँ छुट्टियाँ आनन्द पूर्वक बिताई जा सकती थी ।  न तो माँ-बाप की डाँट-डपट की फ्रिक होती थी और न ही कोई काम-धाम बताया जाता था ।
                             मेरे बड़े मामा का लड़का सुखबीर मेरी उम्र का था । अत: हम दोनों में मित्रभाव पैदा होना स्वाभाविक था और हम बेझिझक वे सब बातें करते थे जो इस उम्र में देहाती लड़के करते हैं । हमारी बातों के विषय क्या हो सकते हैं इसके बारे में विस्तार से बताने की जरूरत नहीं है ।
                                                            क्योंकि आप समझदार व्यक्ति हैं जो मेरी कहानी पढ़ते-पढ़ते इतनी दूर तक आ पहुँचे हैं तथा या तो आप इस उम्र और हालात से गुजर चुके हैं या गुजर रहे हैं । अगर आप इस उम्र से छोटे हैं तो आप इस कहानी को आगे ना पढ़े यह मेरा आपसे विनम्र निवेदन है । वरना जिस तरह कोई प्राइमरी पास व्यक्ति सीनियर सैकेन्डरी के पाठ्ïयक्रम को नहीं समझ सकता । उसी तरह आगे की कहानी आपकी समझ और पाठ्ïयक्रम से बाहर की बात होगी । मामा का लड़का सुखबीर दसवीं फेल होकर पढऩा छोड़ चुका था और ट्रैक्टर लेना चाहता था खेती करने के लिए । जबकि मामा का विचार था कि पहले वह काम करके दिखाए फिर ट्रैक्टर ले । वह फौज में भरती होने की भी सोचता था तथा मामा के मना करने के बावजूद कोशिश भी कर चुका था । परन्तु नाकाम रहा था । रात को हम दोनों नोहरे (पुरुषों की बैठक) की छत पर सोते थे और रात जाने कब तक बतियाते रहते थे ? इधर-उधर की बात होने के बाद हमारी बातें इस उम्र के लड़कों की तरह लड़कियों पर केंद्रित हो जाती थीं । मैं चूंकि शहर से आया था इसलिए लड़कियों के बारे में इस तरह खुली-उज्जड़ बातें मुझे अच्छी नहीं लगती थी । मगर धीरे-धीरे सुखबीर ने मुझे भी अपने रंग में रंग लिया था । वह अपने खेतों में काम करने वाली अनेक स्त्रियों और लड़कियों के बारे में अपने संबन्धों की बातें बड़े चस्के लेकर करता था । मगर पड़ोस में रहने वाली फूलाँ मौसी की लड़की बिमला के हाथ न आने का मलाल उसे बहुत अधिक था ।
                                                              बिमला फौजी बाप की बेटी थी । उसके पिता का निधन एक दुर्घटना में हो चुका था और रिश्ते-नाते बिरादरी के दबाव के बावजूद फूलाँ ने अपने अनपढ़ जेठ का लत्ता ओढऩे से साफ इन्कार कर दिया था । लत्ता ओढऩा हरियाणा के गाँव-देहात में विधवा विवाह का रूप था । पति के किसी भाई से विवाह करने का एक आम रिवाज था । फूलाँ मौसी को सुखबीर मौसी इसलिए कहता था क्योंकि सुखबीर की माँ और बिमला की माँ एक ही गाँव की रहने वाली थीं और इसी रिश्ते की वजह से उसका आना-जाना फूलाँ के घर लगा रहता था । हालाँकि वह जाता बिमला की वजह से ही था । बिमला दसवीं पास करके पढऩे के लिए कालेज जाने लगी थी । कालेज मामा के गाँव से लगभग दस किलोमीटर दूर था व पढऩे वाले सभी बच्चे लोकल बस से शहर जाते थे । मैंने बिमला को देखा था, वह वास्तव में ही बड़ी सुन्दर लड़की थी । सुखबीर के बारम्बार कहने का असर था या बिमला की सुन्दरता का कि मैं चाहे-अनचाहे बिमला पर नजर रखने लगा था ।
                                  आप शायद जानते होंगे कि स्त्रियों में एक प्रकृति प्रदत्तगुण होता है कि चाहे आपकी नजर उनके किसी पिछले अंग पर ही पड़े उन्हें मालूम हो जाता है कि कोई उन्हें देख रहा है । अपने इसी गुण के कारण बिमला ने कई बार मुझे स्वयं को ताकते हुए पकड़ा भी । शुरूआत में उसकी न$जर मुझे स्वयं को धिक्कारती नजर आई । मैं थोड़ा घबरा भी गया था, मैंने उसे चोरी से देखना छोड़ा तो नहीं परन्तु कम $जरूर कर दिया था । वह कालेज से आते-जाते मेरे मामा के नोहरे के आगे से गुजरती थी । जहाँ मैं पहले बाहर बैठकर उसे देखता था वहीं अब बंद दरवाजे के सुराखों से उसे आते-जाते देखने लगा था । कुछ दिनों बाद मैंने देखा कि मुझे बाहर बैठा न पाकर वह खाली दरवाजे की तरफ झाँकने लगी थी । स्त्रियाँ अपनी उपेक्षा को सहन नहीं कर सकतीं । हालाँकि मैं बिमला की उपेक्षा नहीं कर रहा था । लेकिन हो सकता है उसे ऐसा ही महसूस हुआ हो । उधर सुखबीर मुझे उकसाता रहता था कि मैं बिमला से मित्रता करूँ  और आखिर एक दिन मेरी उससे मित्रता हो गई ।
        हुआ यूँ कि एक दिन शहर के बस अड्डे पर वह गाँव जाने के लिए खड़ी थी गाँव जाने वाली आखिरी बस जा चुकी थी मैं मोटरसाईकिल पर ननिहाल आ रहा था । जब मैंने उससे गाँव चलने के लिए कहा तो थोड़े से संकोच के बाद वह मोटरसाईकिल पर बैठ गई । उसके बाद तो सिलसिला चल पड़ा । मैं शहर के चक्कर ज्यादा लगाने लगा और वह जान-बूझकर बस का टाईम निकालने लगी ।
                     हाँ, एतिहात के तौर पर हम गाँव की पक्की सड़क से न होकर नहर की पटरी से गाँव पहुँचते थे और बिमला गाँव पहुँचने से पहले ही मोटरसाईकिल से उतर जाती थी । हवा का चिंगारी से साथ और आग का घी से साथ क्या गुल खिलाता है ये आप जानते ही हैं वही गुल खिलने लगा और एक दिन इसकी खबर का कहर मुझ पर और बिमला दोनों पर टूट पड़ा । जब बिमला ने शक जाहिर किया कि वह माँ बनने वाली है ।
        नादान उम्र की वजह से हम दोनों ने इस संभावित खतरे की ओर ध्यान नहीं दिया था अब हमारे पाँव के नीचे से धरती खिसक गई थी और सिर पर आसमान टूट पड़ा था । न तो मैं और न बिमला ही उस वक्त उस हालात में विवाह के बारे में सोच सकते थे । सुखबीर से सलाह करके फैसला हुआ कि गर्भ गिरा दिया जाए । तथा जब हम दोनों पढ़कर अपने पाँवों पर खड़े हो जाएं तो विवाह कर लें । इस वक्त तो ऐसा करना किसी भी हालात में संभव नहीं था । गाँव-देहात की जात-बिरादरी में यह बात उस जमाने में असंभव थी । मैंने और सुखबीर ने शहर में एक लेडी डाक्टर से बात की तथा एक दिन बिमला कालेज ना जाकर मेरे साथ लेडी डाक्टर के पास गई तथा अर्बाशन करवा लिया । खून अधिक बह जाने से लेडी डाक्टर छुट्टी नहीं देना चाहती थी पर मैं तथा बिमला छुट्टी करवाकर लौट चले,मजबूरी थी,भेद खुलने की । रास्ते में, मैंने अनेक बार कसम खाकर बिमला को विश्वास दिलाया कि पढ़ाई खत्म कर नौकरी लगते ही हम कोर्ट मैरिज कर लेंगे । मैं मोटरसाईकिल पर बिमला को लिए वापिस आ रहा था नहर के रास्ते से । सड़क के रास्ते से देख लिए जाने का खतरा था। खतरा तो नहर के रास्ते पर भी था मगर सड़क से कम ही था, बिमला ने खेस ओढ़ रखा था जिससे भम्र रहता कि वह मरद थी। किसी तरह गाँव पहुँचे। बिमला को गाँव के बाहर उतार कर मैं शहर आ गया । अगले दिन ननिहाल गया । दो-तीन घंटे मुश्किल से कटे तथा अपना बोरिया-बिस्तरा उठाकर घर भाग आया ।
        उस दिन के बाद मैंने मुड़कर भी ननिहाल की तरफ मुँह नहीं किया ।  ब्याह-शादी तो दूर नानी के मरने पर भी बीमारी का बहाना करके रह गया । पेट-दर्द का बहाना बहुत कारगर होता है । उसे डाक्टर भी नहीं कह सकता कि सच है कि झूठ कोई थर्मामीटर थोड़े ही है पेट दर्द नापने का । यह नहीं है कि मुझे बिमला याद  नहीं आई,  याद आई बिमला उसकी बड़ी-बड़ी शर्मीली आँखें, उसका नर्सिंग होम में बलि का बकरे सा चेहरा मेरी नींद हराम करता रहा बरसों तक।  मगर मैं उसे दिल के अन्धेरे में धकेलता रहा था । अपनी कसमें जो मैंने बिमला को दी थी, मैं कब, कैसे, भूल गया सचमुच आज तक मुझे उसका अफसोस है । 
        अब पचास पार कर जब इस शहर में कर्नल बन कर आया तो ननिहाल से अनेक लोग मिलने आते रहे कुछ फौज में भरती होने की सिफारिश लेकर कुछ महज पुराने रिश्ते नए करने तो मुझे बिमला की याद आई । पर मैं किससे पूछता? बिमला तो विधवा माँ की अकेली बेटी थी, न भाई, न बहन । एक दिन मैंने ननिहाल के गाँव जाने की ठानी । ठानी क्या पहुँच ही गया फौजी जीप में । मेले जैसा माहौल हो गया था ननिहाल में।  लगभग सारा गाँव उमड़ पड़ा था मुझसे मिलने ।  वैसे भी मैंने गाँव के लगभग दस-बारह गबरू जवान फौज में भरती करवा दिए थे ना एक ही साल में । मेरे छुटके मामा गाँव वालों से बतिया रहे थे । गाँव के अनेक जवान जहाँ आगे फौज भरती की आशा से जमा थे । वहीं अनेक अधेड़ बुजुर्ग, औरत-मरद, गाँव की बेटी के होनहार सपूत से मिलने आर्शिवाद देने पहुँचे थे ।
                       मेरी आँखें बार-बार फूलाँ  मौसी, बिमला की माँ को ढूँढ रही थीं । अधेड़ तो मौसी मेरी जवानी में ही थी अब तो बूढ़ी-फूस हो गई होंगी । मेरा दिल किया किसी से पूछूँ पर अपनी पुरानी बात याद कर हिम्मत नहीं हुई ।
                                      दो-तीन घंटे यूँ ही बिता कर मैं जीप में बैठ कर लौट रहा था कि फूलाँ मौसी, बूढ़ी-फूस फूलाँ मौसी मुझे एक पेड़ के नीचे खड़ी दिखाई दी । मुझे लगा कि जैसे वह मेरे इन्तजार में खड़ी थी । मैंने ड्राईवर को जीप रोकने को कहा और जीप से उतर कर मौसी के पास पहुँचा और उनके पैर छूते हुए कहने लगा कि मौसी आशीर्वाद दो। मगर फूला मौसी ने पैर पीछे हटा लिए । जब सिर ऊपर उठाया तो देखा कि मौसी मुझे अजीब निगाह से देख रही थी ।
                                     उसके बाएं हाथ में एक लाठी थी जिसके सहारे वह खड़ी थी, अचानक उसका दायां हाथ ऊपर उठा, मुझे लगा कि वह मेरे सिर पर हाथ रखकर आर्शीवाद देना चाहती है, मगर ये क्या हुआ कि दाएं हाथ का एक जोरदार थप्पड़ मेरे बाएँ गाल पर पड़ा । इससे पहले मैं संभलता फूला मौसी लाठी टेकती हुई झाडिय़ों में गुम हो चुकी थी । सुखबीर मेरे मामा का बेटा जो अब तक मेरे पास आ खड़ा हुआ था मेरे कंधे पर हाथ रख कर बोला,  ''रमेश! ये फूलाँ मौसी नहीं उसकी पगली बेटी बिमला है । अगर उस वक्त धरती फट जाती और मैं उसमें समा जाता तो मुझे कोई अफसोस नहीं होता । 

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