घर से बाहर हूं घर मेरे भीतर है
बात यही मुझको देती दुख अक्सर है
औढ़ आकाश सदा सोये हम बंजारे
रात हुए धरती बन जाती बिस्तर है
बादल बिजुरी जब भी हैं करते मस्ती
घबराता रहता बेचारा छप्पर है
रात मजे में सोती रहती है शब भर
दिन बेचारा खटता रहता दिन भर है
नेह उडेला है सदियों से नदियों ने
फिर भी क्यों खारा का खारा सागर है
खुशियां तो कब की भाग गईं पीठ दिखा
गम बैठा दिल में बनकर दिलबर है
मेरा एक और ब्लॉग http://katha-kavita.blogspot.com/
बात यही मुझको देती दुख अक्सर है
औढ़ आकाश सदा सोये हम बंजारे
रात हुए धरती बन जाती बिस्तर है
बादल बिजुरी जब भी हैं करते मस्ती
घबराता रहता बेचारा छप्पर है
रात मजे में सोती रहती है शब भर
दिन बेचारा खटता रहता दिन भर है
नेह उडेला है सदियों से नदियों ने
फिर भी क्यों खारा का खारा सागर है
खुशियां तो कब की भाग गईं पीठ दिखा
गम बैठा दिल में बनकर दिलबर है
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बहुत बढ़िया ग़ज़ल....
ReplyDeleteहर शेर काबिले दाद.
अनु
वाकई काबिल-ए-तारीफ
ReplyDeleteऔर अपना अन्य Blog Share करने के लिए शुक्रिया ☺☺☺