Monday, February 4, 2013

घर से बाहर हूं घर मेरे भीतर है- gazal Dr shyam skha shyam

घर  से   बाहर  हूं  घर   मेरे   भीतर है
बात यही मुझको देती दुख अक्सर है

औढ़  आकाश  सदा सोये हम बंजारे
रात हुए धरती बन जाती बिस्तर है


बादल बिजुरी जब भी  हैं करते मस्ती
घबराता रहता बेचारा छप्पर है

रात मजे में सोती रहती है शब भर
दिन बेचारा खटता रहता दिन भर है

नेह उडेला है सदियों से नदियों ने
फिर भी क्यों खारा का खारा सागर है

खुशियां तो कब की भाग गईं पीठ दिखा
गम बैठा दिल में बनकर दिलबर है




मेरा एक और ब्लॉग http://katha-kavita.blogspot.com/

2 comments:

  1. बहुत बढ़िया ग़ज़ल....
    हर शेर काबिले दाद.

    अनु

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  2. वाकई काबिल-ए-तारीफ

    और अपना अन्य Blog Share करने के लिए शुक्रिया ☺☺☺

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