Thursday, March 8, 2012

महका-बहका तन फ़िरै

मौसम की मनुहार सुन, बादल बरसा रात
प्रीत,प्रेम की दे गया, धरती को सौगात

बासन्ती बयार का है, अपना अलग सरूर
बिना घुंघरू नाच रहा,सबका मन मयूर

पौर-पौर छलकै सखी,मेरे मन की प्रीत
उसका क्या कसूर भला,फ़ागुन की यह रीत


गये दिवस ठिठुरन भरे,आया है मधुमास
महका-बहका तन फ़िरै,मन में है उल्लास

मौसम को भी भा गया, फागुन का यह राग
बाहों में गौरी लिये, साजन खेलें फाग


मेरा एक और ब्लॉग http://katha-kavita.blogspot.com/

6 comments:

  1. ---अच्छी गज़ल....शुभ होली...

    गौरी = गोरी
    बासन्ती बयार का है, = १४ मात्रायें

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  2. "उसका क्या कसूर भला,फ़ागुन की यह रीत"
    बहुत खूब! फागुन की गजल बेहद खूबसूरत!

    आपको होली की ढेर सारी शुभकामनाएं।

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  3. .

    सुंदर ,सार्थक , भाव पूर्ण दोहे कहे हैं आपने …
    बधाई …
    आभार!

    स्वीकार करें मंगलकामनाएं आगामी होली तक के लिए …
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    ♥होली ऐसी खेलिए, प्रेम पाए विस्तार !♥
    ♥मरुथल मन में बह उठे… मृदु शीतल जल-धार !!♥


    आपको सपरिवार
    होली की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं !
    - राजेन्द्र स्वर्णकार
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  4. आप सभी का आभार और डॉ० श्याम गुप्त जी आपका और ज्यादा मात्रा १४ ही हैं होली की मस्ती में भूल हुई और आप भी शायद इसी मस्ती में दोहों को अच्छी गज़ल बतागये खैर हैपी होली।
    आपका अपना ही सखा
    श्याम सखा

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  5. अति सुन्दर दोहे हैं जी, होली तो गई ...अब अगली होली की अग्रिम बधाई आपको...

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  6. बहुत ही बेहतरीन पंक्तियाँ बेहतरीन गजल.... श्याम जी

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