राहत के दो पल
आंखो से ओझल
रोज लड़े हम तुम
निकला कोई हल
न्यौता देतीं नित
दो आंखे चंचल
झेल नहीं पाए
हम अपनो के छल
भीड़ भरे जग से
दूर कहीं ले चल
मौन तुझे पाकर
चुप है कोलाहल
कितने गहरे हैं
रिश्तों के दलद्ल
`श्याम' मिलेंगे ही
आज नहीं तो कल
मेरा एक और ब्लॉग
http://katha-kavita.blogspot.com/
सुन्दर गजल।
ReplyDeleteमौन तुझे पाकर
ReplyDeleteचुप है कोलाहल
कितने गहरे हैं
रिश्तों के दलद्ल...
अच्छी ग़ज़ल ...!!
झेल नहीं पाए
ReplyDeleteहम अपनो के छल
कटु सत्य , इंसान अपनों के ही छल को नहीं सह पाता है , पूरी दुनिया का धोखा सह जाता है
behtreen gajal
ReplyDeletegajab ki pirastuti wow
ReplyDeletebahut sundar gazal he maza aa gya
shekhar kumawat
http://kavyawani.blogspot.com/
बहुत उम्दा गजल है\बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteरोज लड़े हम तुम
ReplyDeleteनिकला कोई हल
यही समझ में आ जाये तो क्या कहना ।
अच्छी ग़ज़ल।
झेल नहीं पाए
ReplyDeleteहम अपनो के छल
अजी बेगाने तो छल कम ही करते है.
बहुत सुंदर
श्याम जी एक महीने से छोटी बहर पर गजल लिखना चाह रहा हूँ
ReplyDeleteआप की गजल पढ़ कर मन बाग बाग हो गया
हर शेर दिल में घर कर गया
`श्याम' मिलेंगे ही
आज नहीं तो कल
आज ही आपसे मिलना चाह रहा थी (चैटिंग में) आपका उत्तर ही नहीं मिला :):(
सुन्दर है ... अलग सा !
ReplyDeleteरोज लड़े हम तुम
ReplyDeleteनिकला कोई हल
...Yahi khaas baat hai, samajhne ke liye.
Shukriya!!
mujhe achhi lagi ye ghazal....chhotii behar ka apna chutila andaaz hota hai .... :)
ReplyDeleteझेल नहीं पाए
ReplyDeleteहम अपनो के छल
भीड़ भरे जग से
दूर कहीं ले चल
bahut umda rachna hai...
वाह बहुत बढ़िया लगा! इस उम्दा ग़ज़ल के लिए बधाई!
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