दुनिया-भर के ग़म थे
और अकेले हम थे
साथ न कैसे देते
ग़म भी आखिर ग़म थे
टीस बहुत थी सुर में
बस स्वर ही मद्घम थे
खुशियाँ दूर सदा ही
ग़म मेरे हमदम थे
सपने भंग हुए क्या
दिल दरहम-बरहम थे
आँखें तो गीली थीं
सूखे मन-मौसम थे
'श्याम’ सँवरते कैसे
सब किस्मत के खम थे
७२ dbg
मेरा एक और ब्लॉग http://katha-kavita.blogspot.com/
सीधे-सीधे यह भी कहा जा सकता है कि
ReplyDeleteपूरी ग़म की दूकान थे
सपने भंग हुए क्या
ReplyDeleteदिल दरहम-बरहम थे
bahut khoob
"ग़म भी आखिर ग़म थे"
ReplyDeleteआप के गम में हमारी आंखें नम थे
अच्छी ग़ज़ल स्वर बेशक दर्दीला है लेकिन सहज लफ़्जो में होने के कारण दमक रही है। कोई ‘ोर कोट नहीं कर पा रहा सब एक जैसे हैं।
ReplyDeleteटीस बहुत थी सुर में
ReplyDeleteबस स्वर ही मद्घम थे
वाह! बहुत खूब
बहुत उम्दा रचना
ReplyDeleteउम्दा ग़ज़ल है। बधाई!
ReplyDeleteमेरा दिल कहता है - बहुत ही उम्दा और लाजवाब सत्यपरक रचना है..........
ReplyDeleteदुनिया-भर के ग़म थे
और अकेले हम थे
बहुत खूब
ग़म ही ग़म तो साथ निभाते।
ReplyDeleteवरना हम एकल रह जाते।
सुन्दर ग़ज़ल के लिए बधाई.
ReplyDeletesunder gazal k liye sadhuwaad !
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