Thursday, August 26, 2010

दुनिया-भर के ग़म थे/ और अकेले हम थे-gazal


दुनिया-भर के ग़म थे
और अकेले हम थे

साथ न कैसे देते
ग़म भी आखिर ग़म थे

टीस बहुत थी सुर में
बस स्वर ही मद्घम थे

खुशियाँ दूर सदा ही
ग़म  मेरे हमदम थे

सपने भंग हुए क्या
दिल दरहम-बरहम थे

आँखें तो गीली थीं
सूखे मन-मौसम थे

'श्याम’ सँवरते कैसे
सब किस्मत के खम थे

७२ dbg
मेरा एक और ब्लॉग http://katha-kavita.blogspot.com/

11 comments:

  1. सीधे-सीधे यह भी कहा जा सकता है कि
    पूरी ग़म की दूकान थे

    ReplyDelete
  2. सपने भंग हुए क्या
    दिल दरहम-बरहम थे

    bahut khoob

    ReplyDelete
  3. "ग़म भी आखिर ग़म थे"
    आप के गम में हमारी आंखें नम थे

    ReplyDelete
  4. अच्छी ग़ज़ल स्वर बेशक दर्दीला है लेकिन सहज लफ़्जो में होने के कारण दमक रही है। कोई ‘ोर कोट नहीं कर पा रहा सब एक जैसे हैं।

    ReplyDelete
  5. टीस बहुत थी सुर में
    बस स्वर ही मद्घम थे

    वाह! बहुत खूब

    ReplyDelete
  6. बहुत उम्दा रचना

    ReplyDelete
  7. उम्दा ग़ज़ल है। बधाई!

    ReplyDelete
  8. मेरा दिल कहता है - बहुत ही उम्दा और लाजवाब सत्यपरक रचना है..........

    दुनिया-भर के ग़म थे
    और अकेले हम थे

    बहुत खूब

    ReplyDelete
  9. ग़म ही ग़म तो साथ निभाते।
    वरना हम एकल रह जाते।

    ReplyDelete
  10. सुन्दर ग़ज़ल के लिए बधाई.

    ReplyDelete