Thursday, April 7, 2011

हैं उठ रहीं मेरे मन में खराब-सी बातें--- gazal

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हैं उठ रहीं मेरे मन में खराब-सी बातें
 थीं करनी   तुमसे मुझे बेहिसाब-सी बातें



हो तुम  भी, हम भी हैं जब साफगो, उठीं फिर क्यों
हमारे बीच बताओ नकाब-सी बातें

बगैर जाम के मदहोश कर दिया उसने
रहा वो करता ही हर पल शराब-सी बातें

इलाही तुम ही हो क्या रूबरू मेरे सचमुच
हकीकतो में भी होती हैं ख्वाब-सी बातें

खुदा का जिक्र ही होता है कब जहाँ में अब
यहाँ तो होती हैं बस अब अजाब-सी बातें

समझना ‘श्याम’ को आसां नहीं कभी यारो
करे है वो तो सदा बस किताब-सी बातें


मफ़ाइलुन. फ़इलातुन मफ़ाइलुन फ़ेलुन



मेरा एक और ब्लॉग http://katha-kavita.blogspot.com/

4 comments:

  1. बेहतरीन ग़ज़ल!

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  2. इलाही तुम ही हो क्या रूबरू मेरे सचमुच
    हकीकतो में भी होती हैं ख्वाब-सी बातें
    बहुत सुन्दर गज़ल

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  3. शर्मो-हया का पर्दा उठ गया
    तो फिर कहां हिजाब-सी बातें :)

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