मुहब्बत मुझे हर जगह हां मिली थी
यहां भी मिली है वहां भी मिली थी
न सुनना ही आया न कहना ही आया
मुझे दिल मिला था जुबां भी मिली थी
मिले प्यार में मुझको मौसम सभी थे
फ़िजां भी मिली थी खिजां भी मिली थी
रहे-इश्क जब था पकड़कर चला मैं
हुई मुश्किलें मुझको आसां मिली थी
गिला
जिन्दगी से करूं `श्याम' मैं क्या
मुझे
मौत बन मेहरबां भी मिली थी
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न सुनना ही आया न कहना ही आया
ReplyDeleteमुझे दिल मिला था जुबां भी मिली थी
भाई वाह..क्या शेर कहा है...सुभान अल्लाह...बहुत कमाल की ग़ज़ल कही है...दाद कबूल करें...
भाई जी मुंबई में देवी जी के यहाँ तो आप बिना हमारी ग़ज़ल सुने पतली गली से निकल लिए थे अब ये बताएं के दुबारा हमारी ग़ज़लें सुनने कब आ रहे हैं...भाई शायरों के साथ येही समस्या है एक सुनेगे तो दस सुनायेंगे आपने तो पूरी बीस सुनाई थी इस हिसाब से तैयार होके मुंबई आना...:-))
उम्दा शेर... बहुत अच्छी ग़ज़ल...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteकुछ गड़बड़ है इस बार। रदीफ़ और काफि़या स्पष्ट नहीं हो रहा है।
ReplyDeleteबहुत बढिया गजल।बधाई।
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ReplyDeleteआप सभी सुधी बन्धुओं का आभार रदीफ़ काफ़िये वाकई गड़्बड़ हैं बह्त दिनों से केवल बड़ाई सुन कर बदहजमी मिटाने के लिये तथा आप सभी के सहयोग से इसके रदीफ़ काफ़िये बिठाने की तमन्न से पोस्ट की यह कच्ची रचना। अब सभी भी मिली थी -रदीफ़के साथ जुबां मेहरबां आदि काफ़िये से संवारने में मदद करें इसे- कई दिन से तंग कर ही है और वक्त मिल नहीं रहा
ReplyDeleteनीरज भाई अबके आप के यहां आके आपकी ही जितनी चाहेंगे सुनूंगा- वैसे देवी जी ने ही प्रोग्राम बिगाड़ा- श्री मह्रिष के यहां था पहले यह प्रोग्राम-जहां उन्होने कहा था कि २-३ लोग पढेंगे शेष ३०-४० मिन्ट मुझे पढ़्ना होगा रूबरू जैसा.
देवी जी ने तो अपने संकल्न की सभी बुला लीं और वे पढ़ पढ कर सरक रहीं थी इस्लिये हरियाणवी स्टाइल अपनाना पड़ा।
श्री लक्षम्ण दुबे के यहां मैने व विज्ञा्न व्र्त ने ही पढ़ा था
यह शेर बहुत पसंद आया -
ReplyDelete"न सुनना ही आया न कहना ही आया
मुझे दिल मिला था जुबां भी मिली थी"