तलवार उनकी, है सर अपना-गज़ल
बच्चे अपने हैं घर अपनाइनको खोने का डर अपनाबात न कर दीवारो-दर कीधरती अपनी, अम्बर अपनाचप्पू नहीं गर, बाजू तो हैं
कश्ती अपनी, सागर अपना
हुए फकीर तभी जाना येसारी दुनिया ही घर अपना
महल डरेंगे इस तूफां से
अम्बर ही है छप्पर अपना
`श्याम 'इम्तिहां देना हमको
तलवार उनकी,है सर अपनाफ़ेलुन,फ़ेलुन,फ़ेलुन,फ़ेलुन
हुए फकीर तभी जाना ये
ReplyDeleteसारी दुनिया ही घर अपना
महल डरेंगे इस तूफां से
अम्बर ही है छप्पर अपना
बिलकुल सही बात है. आर्थिक कमजोरी के डर ही हमें कमजोर मानसिक रूप से बनाते है, एक बार इस डर पर फतह मिल जाये, आर्थिक कमजोरी में भी जीना आ जाये तो फिर क्या कहना, शायद इसीलिये गांधी जी के शरीर से धीरे-धीरे कपडे उतारते गए थे और आर्थिक विपन्नता से हालत में रहना सीख लिया था, तभी तो महात्मा कहलाये.
सुन्दर , अर्थ भरी ग़ज़ल पर बधाई.
चन्द्र मोहन गुप्त
महल डरेंगे इस तूफां से
ReplyDeleteअम्बर ही है छप्पर अपना
KHUB KAHI GAZAL AAPNE MAGAR YE SHE'R TO KAMAAL KA BAN PADAA HAI ,,, ACHHEE GAZAL KE LIYE AAPKO DHERO BADHAAYEE...
ARSH
बच्चे अपने हैं घर अपना
ReplyDeleteबच्चे.........कैसे मान लें, डॊक्टर साहेब:)
हुए फकीर तभी जाना ये
ReplyDeleteसारी दुनिया ही घर अपना
bahut khoob, vairagya , aur ishwaranubhooti ke baad hi vasudhaiv kutumbakam ki bhavna janm leti hai.
बहुत अच्छी ग़ज़ल है ....
ReplyDeleteतलवार उनकी,है सर अपना.बहुत खूब
ReplyDeleteश्याम भाई, सारा अच्छा अच्छा आप ही लिखेंगे तो हमा शुमा को कौन पूछेगा. मुझे अब आप से डर लगने लगा है. लगता है अब गजल छोडकर किसी और विधा में अभ्यास करना पडेगा.
ReplyDelete"चप्पू नहीं गर, बाजू तो हैं / कश्ती अपनी, सागर अपना "
ReplyDeleteक्या बात है सर...क्या बात है!!
बहुत खूब
'बात न कर दीवार-ओ-दर की
ReplyDelete………।'
'चप्पू नहीं गर…'
भाव और शिल्प दोनों ही उत्कृष्ट।
बधाई।