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भीड़ में रह कर भी है खाली मकां-सी जिन्दगी
दोस्तो हमको लगी है इम्तिहां-सी जिन्दगी
लाश की मानिन्द ढोती तू रही अक्सर मुझे
झाड़ कर पल्ला है क्यां हैरतकुनां-सी जिन्दगी
क्यों भटकती फिर रही है जा-ब-जा कुछ तो बता
करके घर तामीर भी है तू दुकां-सी जिन्दगी
गिर गये हैं जब से हम तेरी निगाहों से सनम
है लगे हमको तो अपनी बदगुमां-सी जिन्दगी
गुफ्तगू जब से हुई है खत्म अपनी, आपसे
रह गई है बन के गूंगे का बयां-सी जिन्दगी
गाँव से आई थी, तोहफा सादगी का तब थी तू
शहर आकर हो गई तू हुक्मरां-सी जिन्दगी
थी तमन्ना ‘श्याम’ की बन शमअ-सा जलता रहे
उम्र गीली हो गई अपनी धुआं-सी जिन्दगी
फ़ाइलातुन,फ़ाइलातुन,फ़ाइलातुन,फ़ाइलु
मेरा एक और ब्लॉग http://katha-kavita.blogspot.com/
बहुत खूब कही.
ReplyDeleteशहर आकर हो गई तू हुक्मरां-सी जिन्दगी
ReplyDeletekhoobsurat line...
aapka swaagat hai....
andheron ka ehsaas na ho pe
http://shayarichawla.blogspot.com/
भीड़ में रह कर भी है खाली मकां-सी जिन्दगी
ReplyDeleteदोस्तो हमको लगी है इम्तिहां-सी जिन्दगी
लाश की मानिन्द ढोती तू रही अक्सर मुझे
झाड़ कर पल्ला है क्यां हैरतकुनां-सी जिन्दगी
गुफ्तगू जब से हुई है खत्म अपनी, आपसे
रह गई है बन के गूंगे का बयां-सी जिन्दगी
वाह!हर शेर बेशकीमती…………दिल को छू गयी आपकी गज़ल और कहने को कुछ बचा ही नही।
अच्छी गजल बन पड़ी है।
ReplyDeleteवाह साहब वाह खूब, आपकी इस ग़ज़ल पर सद्यजन्मा एक शेर अर्ज करता हूँ कि:
ReplyDeleteये ग़ज़ल जिसने कही सबको वो सिखलाता रहा
उम्र के हर मोड़ पर जीना जवां सी जि़न्दगी।
गाँव से आई थी, तोहफा सादगी का तब थी तू
ReplyDeleteशहर आकर हो गई तू हुक्मरां-सी जिन्दगी
क्या खूब लिखा है ।
शानदार ।
`गुफ्तगू जब से हुई है खत्म अपनी, आपसे'
ReplyDeleteअरे नहीं, डॊक्टर सा’ब, अपनी गुफ़्तगू खत्म कहा हुई :)
aap sbhi kaa aabhaar
ReplyDeleteफूल दर फूल साथ काँटे दर काँटे
ReplyDeleteइस तरह से हुई गुलस्तां सी ज़िन्दगी