Monday, January 24, 2011

उम्र गीली हो गई अपनी धुआं-सी जिन्दगी


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भीड़ में रह कर भी है खाली मकां-सी जिन्दगी
दोस्तो हमको लगी है    इम्तिहां-सी जिन्दगी

लाश की मानिन्द ढोती   तू रही अक्सर मुझे
झाड़ कर पल्ला है क्यां हैरतकुनां-सी जिन्दगी

क्यों भटकती फिर रही है जा--जा कुछ तो बता
करके घर तामीर भी है   तू दुकां-सी जिन्दगी

गिर गये हैं जब से हम तेरी निगाहों से सनम
है लगे हमको तो अपनी  बदगुमां-सी जिन्दगी

गुफ्तगू जब से हुई है   खत्म अपनी, आपसे
रह गई है बन के गूंगे  का बयां-सी जिन्दगी

गाँव से आई थी, तोहफा सादगी का तब थी तू
शहर आकर  हो गई   तू हुक्मरां-सी जिन्दगी

थी तमन्नाश्यामकी बन शमअ-सा जलता रहे
उम्र गीली  हो गई अपनी     धुआं-सी जिन्दगी

फ़ाइलातुन,फ़ाइलातुन,फ़ाइलातुन,फ़ाइलु


मेरा एक और ब्लॉग http://katha-kavita.blogspot.com/

9 comments:

  1. शहर आकर हो गई तू हुक्मरां-सी जिन्दगी

    khoobsurat line...

    aapka swaagat hai....

    andheron ka ehsaas na ho pe

    http://shayarichawla.blogspot.com/

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  2. भीड़ में रह कर भी है खाली मकां-सी जिन्दगी
    दोस्तो हमको लगी है इम्तिहां-सी जिन्दगी

    लाश की मानिन्द ढोती तू रही अक्सर मुझे
    झाड़ कर पल्ला है क्यां हैरतकुनां-सी जिन्दगी

    गुफ्तगू जब से हुई है खत्म अपनी, आपसे
    रह गई है बन के गूंगे का बयां-सी जिन्दगी

    वाह!हर शेर बेशकीमती…………दिल को छू गयी आपकी गज़ल और कहने को कुछ बचा ही नही।

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  3. अच्‍छी गजल बन पड़ी है।

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  4. वाह साहब वाह खूब, आपकी इस ग़ज़ल पर सद्यजन्‍मा एक शेर अर्ज करता हूँ कि:
    ये ग़ज़ल जिसने कही सबको वो सिखलाता रहा
    उम्र के हर मोड़ पर जीना जवां सी जि़न्‍दगी।

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  5. गाँव से आई थी, तोहफा सादगी का तब थी तू
    शहर आकर हो गई तू हुक्मरां-सी जिन्दगी

    क्या खूब लिखा है ।
    शानदार ।

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  6. `गुफ्तगू जब से हुई है खत्म अपनी, आपसे'

    अरे नहीं, डॊक्टर सा’ब, अपनी गुफ़्तगू खत्म कहा हुई :)

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  7. फूल दर फूल साथ काँटे दर काँटे

    इस तरह से हुई गुलस्तां सी ज़िन्दगी

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