Wednesday, March 4, 2009

**भटका पल भर था

घर से बेघर था, क्या करता
दुनिया का डर था, क्या करता

जर्जर कश्ती टूटे चप्पू
चंचल सागर था, क्या करता

सच कहकर भी मैं पछताया
खोया आदर था, क्या करता

चन्दा डूबा, तारे गायब
चलना शब भर था, क्या करता

ठूंठ कहा था सबने मुझको
मौसम पतझर था, क्या करता

ख़ुद से भी तो छुप न सका वो
चर्चा घर-घर था, क्या करता

आख़िर दिल मैं दे ही बैठा
बाँका दिलबर था, क्या करता

ना थी धरती पाँव तले, ना
सर पर अम्बर था, क्या करता

मेरा जीना मेरा मरना
तुम पर निर्भर था, क्या करता

सारी उम्र पड़ा पछताना
भटका पल भर था, क्या करता

बादल बिजली बरखा पानी
टूटा छप्पर था, क्या करता

सब कुछ छोड़ चला आया मैं
रहना दूभर था, क्या करता

थक कर लुट कर वापिस लौटा
घर आख़िर घर था, क्या करता


यह भी फ़ेलुन,फ़ेलुन,फ़ेलुन,फ़ेलुन वज़्न पर आधारित गज़ल है
सुमित भारद्वाज के अनुरोध पर एक शे की तक्तीअ
सब कुछ छोड़ चला आया मैं
२१ १२
रहना दूभर था, क्या करता

2 comments:

  1. उम्दा गज़ल..तक्‌तीअ करके अच्छा काम किया. आभार.

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