Monday, March 9, 2009

जिसने औढ़ा,प्रीत का पल्ला

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यारो मैने खूब ठगा है
खुद को भी तो खूब ठगा है
पहले ठगता था औरों को
कुछ भी हाथ नहीं तब आया
जबसे लगा स्वयं को ठगने
क्या बतलाऊं,क्या-क्या पाया
पहले थी हर खुशी पराई
अब तो हर इक दर्द सगा है
किस-किस को फांसा था मैने
कैसे-कैसे ज़ाल रचे थे
अपनी अय्यारी से यारो
अपने बेगाने कौन बचे थे
औरों के मधुरिम-रंगो में
मन का कपड़ा आज रंगा है
जबसे अपने भीतर झांका
क्या बेगाने या क्या अपने
इक नाटक के पात्र सभी हैं
झूठे हैं जीवन के सपने
दुश्मन भी प्यारे अब लगते
इतना मन में प्रेम-पगा है
ऋषियो-मुनियों ने फरमाया है
माया धूर्त,महा ठगनी है
उनका हाल न पूछो हमसे
जिनको लगती यह सजनी है
जिसके मन में बसती है यह
उसके दिल में दर्द जगा है
जग की हैं बातें अलबेली
जन्म-मृत्यु की ये अठखेली
जिसने औढ़ा,प्रीत का पल्ला
पीर-विरह की उसने झेली
जीवन तो है सफर साँस का
मौत साँस के साथ दगा है

मित्रो आज होली की पूर्व संध्या पर एक गीत लेकर हाजिर हूं

2 comments:

  1. बहोत खूब लिखा है साहब आपने.. आपको तथा आपके पुरे परिवार को मेरे तरफ से होली की ढेरो बधईयाँ और शुभकामनाएं.... गुजिया और जलेबी के साथ...बधाई

    अर्श

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  2. आदरणीय श्यामसखा जी, सहमत हूँ आपसे. गंभीर टिपण्णी के लिए धन्यवाद.
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    मन का कपड़ा आज रंगा है
    जबसे अपने भीतर झांका
    क्या बेगाने या क्या अपने
    इक नाटक के पात्र सभी हैं

    - अन्वेषण जरुरी है.

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