Wednesday, March 18, 2009

शुक्रिया जिन्दगी- गज़ल

गम दिये , दी खुशी
शुक्रिया जिन्दगी

तम हुआ खत्म तब
जब दिखी रोशनी

यूं जतन लाख थे
बात पर कब बनी

मर मिटे हैं सभी
वाह री सादगी

दर्द ज्यों-ज्यों बढ़ा
बढ़ गई बन्दगी


हर घड़ी बज रही 
धड़कने हैं सखा 
ध्यान से सुन ज़रा 
मौत की   दुंदभी 

सभ्यता खा गई
ये नई रोशनी


दे गई , मौत को 
मात फिर जिन्दगी 


है नहीं 'श्याम' क्या
सिरफ़िरा आदमी

8 comments:

  1. गम दिये , दी खुशी
    शुक्रिया जिन्दगी

    तम हुआ खत्म तब
    जब दिखी रोशनी


    बहुत खूब सर जी ।

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  2. Waah !! Bahut sundar rachna....

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  3. itne chote se behar main apne ko badhne ke bavzood itna kuch keh gaye?
    wah gurudev....

    "दर्द ज्यों-ज्यों बढ़ा
    बढ़ गई बन्दगी"

    gagar mein sagar...

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  4. यूं जतन लाख थे
    बात पर कब बनी

    मर मिटे हैं सभी
    वाह री सादगी

    दर्द ज्यों-ज्यों बढ़ा
    बढ़ गई बन्दगीसीधे-सरल शब्दों में सुन्दर अभिव्यक्ति।

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  5. दर्द ज्यों-ज्यों बढ़ा
    बढ़ गई बन्दगी
    लाजवाब श्याम जी...लाजवाब....छोटी बहर में ग़ज़ल लिखना बहुत मुश्किल होता है लेकिन आपने क्या खूब अंजाम दिया है...वाह.
    नीरज

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  6. हर शेर खूबसूरत है
    बिन रदीफ़ के भी गजल की खूबसूरती कही से कम नहीं
    वीनस केसरी

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  7. मुतदारिक में छोटी बहर और ग़ैरमुरद्दफ़: पढ़ कर आनंद आगया, श्याम जी।

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  8. Achcha likhte hain aap.Badhai.

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