Monday, June 11, 2012

सभी ख्वाब तो हैं बने टूटने को--- Gazal -Dr shyam skha shyam


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अभी तक सपन जो भी उर में थे लम्बित
हुए देख तुमको वे नयनों में अंकित

लजाने लगीं तितलियां बाग में तब
भंवर ने गुलों को किया जब भी चुम्बित

अचानक भरी प्यार से झोली उसकी
रहा था मुहब्बत से अब तक जो वंचित

सभी ख्वाब तो हैं बने टूटने को
किये जाते नाहक हो क्यों उनको संचित

जमाना कभीश्यामअनूठे को देखे
रहेगा खड़ा देखता वो अचम्भित

फ़ऊलुन,फ़ऊलुन.फ़ऊलुन,फ़ऊलुन,





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Monday, May 28, 2012

मिले प्यार में मुझको मौसम सभी थे-gazal shyam skha


 

मुहब्बत मुझे हर जगह हां मिली थी
      यहां भी मिली है वहां भी मिली थी

सुनना ही आया  कहना ही आया
मुझे दिल मिला था जुबां भी मिली थी

मिले प्यार में मुझको मौसम सभी थे
फ़िजां भी मिली थी खिजां भी मिली थी

रहे-इश्क जब था पकड़कर  चला मैं
      हुई मुश्किलें मुझको आसां मिली थी
 
     गिला जिन्दगी से करूं `श्याम' मैं क्या
     मुझे मौत बन मेहरबां भी मिली थी















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Wednesday, April 18, 2012

जीस्त जब भी सवाल करती है---gazal dr shyam skha shyam



जीस्त जब भी सवाल करती है 

मेरा जीना  मुहाल करती  है

मौत भी तो कमाल करती है 

साँसों कि देखभाल करती है

रूठकर मुझसे मेरी जानेमन
मेरी ज्यादा सँभाल करती है  


चाँद की बेवफाई पर उजाला 
जुगनुओं की मशाल करती है

जागती रातभर है बैरन रात 
नींद बैठी मलाल करती है 

याद आती 'श्याम' जब तेरी 
मेरी धड़कन धमाल करती है



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Saturday, April 7, 2012

हमने माना‘श्याम’फक्कड़’और है कुछ बदजुबाँ-gazal shyam skha shyam


60-a
जिन्दगी को जब कभी सिक्कों से है आँका गया
यूँ लगा दोष  आपका था और मुझे डाँटा गया

जब किसी कारण से भी घर था कभी बाँटा गया
दुख  हमेशा  क्यों मेरे  ही वास्ते  छांटा गया

शख्स जब  कोई  गिरा अपने उसूलों से कभी
समझो  चाँदी  की छड़ी  से है   हाँका  गया

मुझमें  और सुकरात में बस फ़र्क इतना ही रहा
पी गया वो जह् पर मुझसे विष फाँका गया

था गुजरता जब कभी उस शोख के कूचे से मैं
शोर मच जाता थादेखो वह गया, बाँका गया

हमने मानाश्यामफक्कड़और है कुछ बदजुबाँ
पर खरा उतरा है जब परखा गया,जाँचा गया

फाइलातुन,फाइलातुन,फाइलातुन,फ़ाइलुन


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Thursday, March 29, 2012

कोई काम आया कब मुसीबत में

 
A-59
ज़ख्म था ज़ख्म का निशान भी था
दर्द  का अपना इक मकान  भी   था

दोस्त  था और    मेहरबान  भी  था
ले रहा      मेरा  इम्तिहान   भी  था

शेयरों    में   गज़ब  उफान   भी था
कर्ज़  में    डूबता      किसान भी था

आस     थी जीने की अभी    बाकी
रास्ते  में मगर    मसान भी था

कोई काम आया  कब  मुसीबत में
कहने को अपना खानदान भी था

मर के दोज़ख मिला तो समझे हम
वाकई   दूसरा      जहान     भी था

उम्र भर साथ  था  निभाना जिन्हें
फासिला उनके   दरमियान भी था

खुदकुशीश्यामकर ली क्यों तूने
तेरी किस्मत में   आसमान भी था
फ़ाइलातुन,मफ़ाइलुन ,फ़ेलुन

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Thursday, March 8, 2012

महका-बहका तन फ़िरै

मौसम की मनुहार सुन, बादल बरसा रात
प्रीत,प्रेम की दे गया, धरती को सौगात

बासन्ती बयार का है, अपना अलग सरूर
बिना घुंघरू नाच रहा,सबका मन मयूर

पौर-पौर छलकै सखी,मेरे मन की प्रीत
उसका क्या कसूर भला,फ़ागुन की यह रीत


गये दिवस ठिठुरन भरे,आया है मधुमास
महका-बहका तन फ़िरै,मन में है उल्लास

मौसम को भी भा गया, फागुन का यह राग
बाहों में गौरी लिये, साजन खेलें फाग


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Wednesday, March 7, 2012

मनवा मा उल्लास है, होली को त्यौहार

दिवस गये ठिठुरन भरे,आया फ़िर मधुमास
बयार बही प्रीत की, मनवा मा उल्लास
मनवा मा उल्लास है, होली को त्यौहार
,भूल पुरानी रार अब, गले लगो सब यार


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Tuesday, February 28, 2012

थप्पड़--- कहानी- हुजूर वाकई थप्पड़ ही है शीर्षक इस कहानी का

                                                                       थप्पड़                         

    झूठी कहानी लिखना, मेरे वश की बात नहीं है । क्योंकि झूठी कहानी लिखने वाले को, सच का गला घोंट कर मारना पड़ता है ।  वैसे सच कभी नहीं मरता । सच न पहले मरा है न आगे कभी मरेगा । मरता है सिर्फ झूठ बोलने वाला और चूंकि मैं अभी मरना चहीं चाहता इसलिए झूठी कहानियाँ नहीं लिखता । आपने प्रेम की अनेक कहानियाँ पढ़ी होंगी और उसमें भी 'प्लेटोनिक लव यानि वह प्रेम जिसमें शारीरिक संबन्ध नहीं होता की कहानियाँ भी पढ़ी होंगी । हो सकता है समय, मजबूरी, संस्कारों के कारण या अपनी कायरतावश या मौके की नजाकत की वजह से या किन्हीं और कतिपय कारणों से यह संबन्ध स्थापित न हुए हों । लेकिन उन स्त्री-पुरुष दोस्तों के मन में जो एक-दूसरे को चाहते रहे हैं कभी भी शारीरिक संबन्धों की इच्छा पैदा न हुई हो मैं नहीं मानता । क्योंकि मैं आपसे पहले ही कह चुका हूँ कि मैं झूठी कहानी नहीं कहता । उम्र के इस पड़ाव तक अनेक संबन्ध जिए हैं मैंने तथा अनेक संबन्धों में मरा भी हूँ । जो संबन्ध जितने अधिक निकट थे वे उतनी जल्दी गल-सड़ गए तथा मर गए । यह केवल मेरे साथ ही हुआ हो ऐसा नहीं है । हम में से अनेक लोग समझौतों की राख इन गन्धाते संबन्धों पर डालकर जीने का नाटक करते हुए मरते रहते हैं । हाँ, तो मैं कह रहा था कि ऐसे अनेक संबन्ध मैंने भी जिए हैं । यहाँ मैं अपने पहले संबन्ध की बात करना चाहूँगा । $िजक्र उस वक्त का है, जब हर किशोर की मसें भीगने लगती हैं । मन में एक अजीब-सी गुदगुदी होने लगती है और शरीर की बोटियाँ किसी को आलिंगन में कसने को आतुर हो उठती हैं । इसी तरह का परिवर्तन किशोरियों में भी आता है । उसे अंग्रेजी में 'प्यूबरटीÓ कहते हैं । उनके शरीर के अवयव अचानक उभरने लगते हैं । आँखें लज्जा से झुकने लगती हैं, कनखियों से हमउम्र लड़कों को देखना उनका स्वभाव बन जाता है । शरीर बार-बार चाहता है कि कोई अपनी बलिष्ठï बाहों के आलिंगन में लेकर मन की इस अबूझ प्यास को बुझा दे । सो बात उन्हीं दिनों की है,  जब मैं सीनियर सैकेन्डरी के इम्तिहान देकर ननिहाल आया हुआ था । उस जमाने में सभी बच्चे छुट्टिïयों में अपने मामा-नाना के यहाँ जाते थे । क्योंकि वही एक मात्र स्थान होता था जहाँ छुट्टिïयाँ आनन्द पूर्वक बिताई जा सकती थी ।  न तो माँ-बाप की डाँट-डपट की फ्रिक होती थी और न ही कोई काम-धाम बताया जाता था । मेरे बड़े मामा का लड़का मेरी उम्र का था । अत: हम दोनों में मित्रभाव पैदा होना स्वाभाविक था और हम बेझिझक वे सब बातें करते थे जो इस उम्र में देहाती लड़के करते हैं । हमारी बातों के विषय क्या हो सकते हैं इसके बारे में विस्तार से बताने की जरूरत नहीं है । क्योंकि आप समझदार व्यक्ति हैं जो मेरी कहानी पढ़ते-पढ़ते इतनी दूर तक आ पहुँचे हैं तथा या तो आप इस उम्र और हालात से गुजर चुके हैं या गुजर रहे हैं । अगर आप इस उम्र से छोटे हैं तो आप इस कहानी को आगे ना पढ़े यह मेरा आपसे विनम्र निवेदन है । वरना जिस तरह कोई प्राइमरी पास व्यक्ति सीनियर सैकेन्डरी के पाठ्ïयक्रम को नहीं समझ सकता । उसी तरह आगे की कहानी आपकी समझ और पाठ्ïयक्रम से बाहर की बात होगी । मामा का लड़का सुखबीर दसवीं फेल होकर पढऩा छोड़ चुका था और ट्रैक्टर लेना चाहता था खेती करने के लिए । जबकि मामा का विचार था कि पहले वह काम करके दिखाए फिर ट्रैक्टर ले । वह फौज में भरती होने की भी सोचता था तथा मामा के मना करने के बावजूद कोशिश भी कर चुका था । परन्तु नाकाम रहा था । रात को हम दोनों नोहरे (पुरुषों की बैठक) की छत पर सोते थे और रात जाने कब तक बतियाते रहते थे ? इधर-उधर की बात होने के बाद हमारी बातें इस उम्र के लड़कों की तरह लड़कियों पर केंद्रित हो जाती थीं । मैं चूंकि शहर से आया था इसलिए लड़कियों के बारे में इस तरह खुली-उज्जड़ बातें मुझे अच्छी नहीं लगती थी । मगर धीरे-धीरे सुखबीर ने मुझे भी अपने रंग में रंग लिया था । वह अपने खेतों में काम करने वाली अनेक स्त्रियों और लड़कियों के बारे में अपने संबन्धों की बातें बड़े चस्के लेकर करता था । मगर पड़ोस में रहने वाली फूलाँ मौसी की लड़की बिमला के हाथ न आने का मलाल उसे बहुत अधिक था । बिमला फौजी बाप की बेटी थी । उसके पिता का निधन एक दुर्घटना में हो चुका था और रिश्ते-नाते बिरादरी के दबाव के बावजूद फूलाँ ने अपने अनपढ़ जेठ का लत्ता ओढऩे से साफ इन्कार कर दिया था । लत्ता ओढऩा हरियाणा के गाँव-देहात में विधवा विवाह का रूप था । पति के किसी भाई से विवाह करने का एक आम रिवाज था । फूलाँ मौसी को सुखबीर मौसी इसलिए कहता था क्योंकि सुखबीर की माँ और बिमला की माँ एक ही गाँव की रहने वाली थीं और इसी रिश्ते की वजह से उसका आना-जाना फूलाँ के घर लगा रहता था । हालाँकि वह जाता बिमला की वजह से ही था । बिमला दसवीं पास करके पढऩे के लिए कालेज जाने लगी थी । कालेज मामा के गाँव से लगभग दस किलोमीटर दूर था व पढऩे वाले सभी बच्चे लोकल बस से शहर जाते थे । मैंने बिमला को देखा था, वह वास्तव में ही बड़ी सुन्दर लड़की थी । सुखबीर के बारम्बार कहने का असर था या बिमला की सुन्दरता का कि मैं चाहे-अनचाहे बिमला पर न$जर रखने लगा था । आप शायद जानते होंगे कि स्त्रियों में एक प्रकृति प्रदत्तगुण होता है कि चाहे आपकी नजर उनके किसी पिछले अंग पर ही पड़े उन्हें मालूम हो जाता है कि कोई उन्हें देख रहा है । अपने इसी गुण के कारण बिमला ने कई बार मुझे स्वयं को ताकते हुए पकड़ा भी । शुरूआत में उसकी न$जर मुझे स्वयं को धिक्कारती नजर आई । मैं थोड़ा घबरा भी गया था, मैंने उसे चोरी से देखना छोड़ा तो नहीं परन्तु कम $जरूर कर दिया था । वह कालेज से आते-जाते मेरे मामा के नोहरे के आगे से गुजरती थी । जहाँ मैं पहले बाहर बैठकर उसे देखता था वहीं अब बंद दरवाजे के सुराखों से उसे आते-जाते देखने लगा था । कुछ दिनों बाद मैंने देखा कि मुझे बाहर बैठा न पाकर वह खाली दरवाजे की तरफ झाँकने लगी थी । स्त्रियाँ अपनी उपेक्षा को सहन नहीं कर सकतीं । हालाँकि मैं बिमला की उपेक्षा नहीं कर रहा था । लेकिन हो सकता है उसे ऐसा ही महसूस हुआ हो । उधर सुखबीर मुझे उकसाता रहता था कि मैं बिमला से मित्रता करूँ  और आखिर एक दिन मेरी उससे मित्रता हो गई ।
        हुआ यूँ कि एक दिन शहर के बस अड्डïे पर वह गाँव जाने के लिए खड़ी थी गाँव जाने वाली आखिरी बस जा चुकी थी मैं मोटरसाईकिल पर ननिहाल आ रहा था । जब मैंने उससे गाँव चलने के लिए कहा तो थोड़े से संकोच के बाद वह मोटरसाईकिल पर बैठ गई । उसके बाद तो सिलसिला चल पड़ा । मैं शहर के चक्कर ज्यादा लगाने लगा और वह जान-बूझकर बस का टाईम निकालने लगी । हाँ, एतिहात के तौर पर हम गाँव की पक्की सड़क से न होकर नहर की पटरी से गाँव पहुँचते थे और बिमला गाँव पहुँचने से पहले ही मोटरसाईकिल से उतर जाती थी । हवा का चिंगारी से साथ और आग का घी से साथ क्या गुल खिलाता है ये आप जानते ही हैं वही गुल खिलने लगा और एक दिन इसकी खबर का कहर मुझ पर और बिमला दोनों पर टूट पड़ा । जब बिमला ने शक जाहिर किया कि वह माँ बनने वाली है ।
        नादान उम्र की वजह से हम दोनों ने इस संभावित खतरे की ओर ध्यान नहीं दिया था अब हमारे पाँव के नीचे से धरती खिसक गई थी और सिर पर आसमान टूट पड़ा था । न तो मैं और न बिमला ही उस वक्त उस हालात में विवाह के बारे में सोच सकते थे । सुखबीर से सलाह करके फैसला हुआ कि गर्भ गिरा दिया जाए । तथा जब हम दोनों पढ़कर अपने पाँवों पर खड़े हो जाएं तो विवाह कर लें । इस वक्त तो ऐसा करना किसी भी हालात में संभव नहीं था । गाँव-देहात की जात-बिरादरी में यह बात उस जमाने में असंभव थी । मैंने और सुखबीर ने शहर में एक लेडी डाक्टर से बात की तथा एक दिन बिमला कालेज ना जाकर मेरे साथ लेडी डाक्टर के पास गई तथा अर्बाशन करवा लिया । खून अधिक बह जाने से लेडी डाक्टर छुट्टïी नहीं देना चाहती थी पर मैं तथा बिमला छुट्टïी करवाकर लौट चले । रास्ते में, मैंने अनेक बार कसम खाकर बिमला को विश्वास दिलाया कि पढ़ाई खत्म कर नौकरी लगते ही हम कोर्ट मैरिज कर लेंगे । मैं मोटरसाईकिल पर बिमला को लिए वापिस आ रहा था नहर के रास्ते से । सड़क के रास्ते से देख लिए जाने का खतरा था। खतरा तो नहर के रास्ते पर भी था मगर सड़क से कम ही था, बिमला ने खेस ओढ़ रखा था जिससे भम्र रहता कि वह मरद थी। किसी तरह गाँव पहुँचे। बिमला को गाँव के बाहर उतार कर मैं शहर आ गया । अगले दिन ननिहाल गया । दो-तीन घंटे मुश्किल से कटे तथा अपना बोरिया-बिस्तरा उठाकर घर भाग आया ।
        उस दिन के बाद मैंने मुड़कर भी ननिहाल की तरफ मुँह नहीं किया ।  ब्याह-शादी तो दूर नानी के मरने पर भी बीमारी का बहाना करके रह गया । पेट-दर्द का बहाना बहुत कारगर होता है । उसे डाक्टर भी नहीं कह सकता कि सच है कि झूठ कोई थर्मामीटर थोड़े ही है पेट दर्द नापने का । यह नहीं है कि मुझे बिमला याद  नहीं आई,  याद आई बिमला उसकी बड़ी-बड़ी शर्मीली आँखें, उसका नर्सिंग होम में बलि का बकरे सा चेहरा मेरी नींद हराम करता रहा बरसों तक।  मगर मैं उसे दिल के अन्धेरे में धकेलता रहा था । अपनी कसमें जो मैंने बिमला को दी थी, मैं कब, कैसे, भूल गया सचमुच आज तक मुझे उसका अफसोस है ।
        अब पचास पार कर जब इस शहर में कर्नल बन कर आया तो ननिहाल से अनेक लोग मिलने आते रहे कुछ फौज में भरती होने की सिफारिश लेकर कुछ महज पुराने रिश्ते नए करने तो मुझे बिमला की याद आई । पर मैं किससे पूछता? बिमला तो विधवा माँ की अकेली बेटी थी, न भाई, न बहन । एक दिन मैंने ननिहाल के गाँव जाने की ठानी । ठानी क्या पहुँच ही गया फौजी जीप में । मेले जैसा माहौल हो गया था ननिहाल में।  लगभग सारा गाँव उमड़ पड़ा था मुझसे मिलने ।  वैसे भी मैंने गाँव के लगभग दस-बारह गबरू जवान फौज में भरती करवा दिए थे ना एक ही साल में । मेरे छुटके मामा गाँव वालों से बतिया रहे थे । गाँव के अनेक जवान जहाँ आगे फौज भरती की आशा से जमा थे । वहीं अनेक अधेड़ बुजुर्ग, औरत-मरद, गाँव की बेटी के होनहार सपूत से मिलने आर्शिवाद देने पहुँचे थे । मेरी आँखें बार-बार फूलाँ  मौसी बिमला की माँ को ढूँढ रही थीं । अधेड़ तो मौसी मेरी जवानी में ही थी अब तो बूढ़ी-फूस हो गई होंगी । मेरा दिल किया किसी से पूछूँ पर अपनी पुरानी बात याद कर हिम्मत नहीं हुई । दो-तीन घंटे यूँ ही बिता कर मैं जीप में बैठ कर लौट रहा था कि फूलाँ मौसी, बूढ़ी-फूस फूलाँ मौसी मुझे एक पेड़ के नीचे खड़ी दिखाई दी । मुझे लगा कि जैसे वह मेरे इन्तजार में खड़ी थी । मैंने ड्राईवर को जीप रोकने को कहा और जीप से उतर कर मौसी के पास पहुँचा और उनके पैर छूते हुए कहने लगा कि मौसी अशीर्वाद दो। मगर फूला मौसी ने पैर पीछे हटा लिए । जब सिर ऊपर उठाया तो देखा कि मौसी मुझे अजीब निगाह से देख रही थी । उसके बाएं हाथ में एक लाठी थी जिसके सहारे वह खड़ी थी, अचानक उसका दायां हाथ ऊपर उठा, मुझे लगा कि वह मेरे सिर पर हाथ रखकर आर्शीवाद देना चाहती है, मगर ये क्या हुआ कि दाएं हाथ का एक जोरदार थप्पड़ मेरे बाएँ गाल पर पड़ा । इससे पहले मैं संभलता फूला मौसी लाठी टेकती हुई झाडिय़ों में गुम हो चुकी थी । सुखबीर मेरे मामा का बेटा जो अब तक मेरे पास आ खड़ा हुआ था मेरे कंधे पर हाथ रख कर बोला,  ''रमेश! ये फूलाँ मौसी नहीं उसकी पगली बेटी बिमला है । अगर उस वक्त धरती फट जाती और मैं उसमें समा जाता तो मुझे कोई अफसोस नहीं होता । 





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