मुझको झूठ कभी रास नहीं आया
सुनकर सच कोई पास नहीं आया
समझे कौन भला अब दुख हाकिम का
हुक्म बजाने को दास नहीं आया
भूखे पेट सदा सोये हम यारो
भूखे पेट सदा सोये हम यारो
करना लेकिन उपवास नहीं आया
पाँव बुजुर्गों के दाबे हैं हमने
यार हुनर यह अनायास नहीं आया
ईद दिवाली होली त्यौहार गए
अम्मा हिस्से अवकाश नहीं आया
यार महाभारत बच जाता,करना
पाँचाली को उपहास नहीं आया
ईद दिवाली होली त्यौहार गए
अम्मा हिस्से अवकाश नहीं आया
यार महाभारत बच जाता,करना
पाँचाली को उपहास नहीं आया
‘आम‘ सभी बिकते हैं बेभाव यहाँ
`श्याम `कभी बिकने ‘खास‘ नहीं आया मेरा एक और ब्लॉग
http://katha-kavita.blogspot.com/
पाँव बुजुर्गों के दाबे हैं हमने
ReplyDeleteयार हुनर यह अनायास नहीं आया
संस्कृति को दर्शाती पंक्तियाँ।
सुन्दर रचना।
श्याम जी आपने इस पोस्ट पर पिछली पोस्ट वाली गजल फिर से लिखी है इसलिए हम भी पिछली पोस्ट पर किया कमेन्ट दोहरा देते हैं
ReplyDelete:):):):)
मुझको झूठ कभी रास नहीं आया
सुनकर सच कोई पास नहीं आया
पाँव बुजुर्गों के दाबे हैं हमने
यार हुनर यह अनायास नहीं आया
ईद दिवाली होली त्यौहार गए
अम्मा हिस्से अवकाश नहीं आया
श्याम जी दिल खुश कर दित्ता :):)
मज़ा आ गया
पाँव बुजुर्गों के दाबे हैं हमने
ReplyDeleteयार हुनर यह अनायास नहीं आया
-बहुत उम्दा!! मुन्नवर राना की गज़ल याद आ गई...
खुद से चलकर नहीं हुनरे-सुखन आया है
पाँव दाबे हैं बुजुर्गों के तो फन आया है
समीर जी हमें भी ये शेर याद आया था मगर "ठीक से" नहीं आ पाया था इसलिए कोट नहीं कर पाए आपने पढवा दिया इसके लिए शुक्रिया :)
ReplyDeleteसरे शेर अच्छे निकले श्याम साब.....मतला बहुत जानदार है.
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteइसे 13.03.10 की चिट्ठा चर्चा (सुबह ०६ बजे) में शामिल किया गया है।
http://chitthacharcha.blogspot.com/
वाह वाह !! शुभकामनायें भाई जी
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