Thursday, March 11, 2010

सुनकर सच कोई पास नहीं आया




मुझको झूठ कभी रास नहीं आया
 सुनकर सच कोई पास नहीं आया



समझे कौन भला  अब दुख हाकिम का
 हुक्म बजाने  को   दास नहीं आया

भूखे पेट  सदा  सोये  हम   यारो
करना लेकिन उपवास नहीं आया

पाँव  बुजुर्गों  के  दाबे  हैं   हमने
यार हुनर यह अनायास नहीं आया

ईद  दिवाली    होली  त्यौहार गए 
अम्मा हिस्से अवकाश नहीं आया 

यार महाभारत बच जाता,करना
पाँचाली को उपहास नहीं आया

आम‘ सभी बिकते  हैं   बेभाव   यहाँ 
`श्याम `कभी बिकने खास‘ नहीं आया


मेरा एक और ब्लॉग
http://katha-kavita.blogspot.com/

7 comments:

  1. पाँव बुजुर्गों के दाबे हैं हमने
    यार हुनर यह अनायास नहीं आया

    संस्कृति को दर्शाती पंक्तियाँ।
    सुन्दर रचना।

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  2. श्याम जी आपने इस पोस्ट पर पिछली पोस्ट वाली गजल फिर से लिखी है इसलिए हम भी पिछली पोस्ट पर किया कमेन्ट दोहरा देते हैं

    :):):):)

    मुझको झूठ कभी रास नहीं आया
    सुनकर सच कोई पास नहीं आया

    पाँव बुजुर्गों के दाबे हैं हमने
    यार हुनर यह अनायास नहीं आया

    ईद दिवाली होली त्यौहार गए
    अम्मा हिस्से अवकाश नहीं आया


    श्याम जी दिल खुश कर दित्ता :):)

    मज़ा आ गया

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  3. पाँव बुजुर्गों के दाबे हैं हमने
    यार हुनर यह अनायास नहीं आया


    -बहुत उम्दा!! मुन्नवर राना की गज़ल याद आ गई...


    खुद से चलकर नहीं हुनरे-सुखन आया है
    पाँव दाबे हैं बुजुर्गों के तो फन आया है

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  4. समीर जी हमें भी ये शेर याद आया था मगर "ठीक से" नहीं आ पाया था इसलिए कोट नहीं कर पाए आपने पढवा दिया इसके लिए शुक्रिया :)

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  5. सरे शेर अच्छे निकले श्याम साब.....मतला बहुत जानदार है.

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  6. बहुत अच्छी प्रस्तुति।
    इसे 13.03.10 की चिट्ठा चर्चा (सुबह ०६ बजे) में शामिल किया गया है।
    http://chitthacharcha.blogspot.com/

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  7. वाह वाह !! शुभकामनायें भाई जी

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